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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ १८५ है । भोज की उक्ति के निषेध या प्रतिषेध-भेद का स्वरूप भरत के प्रतिषेध लक्षण के समान है, जिसमें विज्ञ व्यक्तियों के द्वारा अनुचित कार्य से कर्त्ता का निवारण वाञ्छनीय माना जाता है । ' उक्ति को अलङ्कार न मान कर अलङ्कार्य ही माना जाना चाहिए । यदि विधि-निषेध-परक सभी सुन्दर उक्तियों को अलङ्कारों के बीच परिगणित कर लिया जाय तो अलङ्कार्य क्या बच जायगा ? भोज इस तथ्य से परिचित थे । इसलिए उन्होंने इस अलङ्कार को सामान्य काव्योक्ति से थोड़ा अलग करने का प्रयास किया है । उनके अनुसार विधि आदि उक्तियों से विशिष्ट अर्थ की प्रतीति में ही अलङ्कारत्व होगा । किन्तु, यह अर्थ करने पर भी उक्ति को शुद्ध शब्दालङ्कार तो नहीं ही माना जा सकता । विशिष्ट अर्थ ही उसका नियामक होगा । उक्तिविषयक मीमांसा - शास्त्र की मान्यता तथा भरत के प्रतिषेध-लक्षण को मिला कर भोज ने उक्ति का रूप निर्माण किया है । उक्ति उनकी स्वतन्त्र उद्भावना नहीं है और न उस उक्ति का अलङ्कारत्व ही असन्दिग्ध है ।
युक्ति
जहाँ शब्द या अर्थ में आपाततः अन्वय का अभाव जान पड़ता हो; किन्तु उसमें अनुपपत्ति का परिहार कर अन्वय की योजना कर दी जाय, वहाँ भोज के अनुसार युक्ति नामक शब्दालङ्कार होता है । २ पद की युक्ति के साथ ही भोज ने पदार्थगत युक्ति को भी शब्दालङ्कार में परिगणित कर लिया है । उनके अनुसार पद, पदार्थ, वाक्य, वाक्यार्थ, प्रकरण तथा सम्पूर्ण प्रबन्ध ही युक्ति का विषय हो सकता है । 3 प्रकरण तथा सम्पूर्ण प्रबन्ध की अन्वययोजना को शब्दालङ्कार का एक भेद कैसे माना जा सकता है ? यह स्पष्ट है कि भोज ने प्रकरण एवं प्रबन्ध में प्रातिभासिक अनन्विति में तात्त्विक अन्वय-योजना के जो उदाहरण 'सरस्वतीकण्ठाभरण' में दिये हैं, उनसे युक्ति
१. कार्येषु विपरीतेषु यदि कश्चित् प्रवर्त्तते ।
निवार्यते च कार्यज्ञः प्रतिषेधः प्रकीर्तितः ॥ - भरत, ना० शा ० १६, २३ २. अयुज्यमानस्य मिथः शब्दस्यार्थस्य वा पुनः । योजना क्रियते यासौ युक्तिरित्युच्यते बुधैः ॥
- भोज, सरस्वती कण्ठाभरण, २,६८
३. पदञ्चैव पदार्थश्च वाक्यं वाक्यार्थ एव च । विषयोऽस्याः प्रकरणं प्रबन्धश्चाभिधीयते ॥ - वही, २, ६