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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ २१७ अनन्वय, उपमेयोपमा, स्मरण, रूपक, सन्देह, भ्रान्तिमान, अपह्न ुति, उत्प्र ेक्षा, अतिशयोक्ति, तुल्ययोगिता, दीपक, प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, सहोक्ति, विनोक्ति, समासोक्ति, परिकर, अप्रस्तुतप्रशंसा, अर्थान्तरन्यास, पर्यायोक्त, व्याजस्तुति, आक्षेप, विरोध, विभावना, विशेषोक्ति, असङ्गति, सम, अन्योन्य, विशेष, व्याघात, कारणमाला, एकावली, सार, काव्यलिङ्ग, अनुमान, यथासंख्य, पर्याय, परिवृत्ति, परिसंख्या, समुच्चय, समाधि, प्रत्यनीक, प्रतीप, निमीलित, या मीलित, सामान्य, तद्गुण, अतद्गुण, उत्तर, सूक्ष्म, व्याजोक्ति, वक्रोक्ति, स्वभावोक्ति, भाविक, उदात्त, संसृष्टि और सङ्कर । सम, परिसंख्या, सूक्ष्म आदि अलङ्कारों के उदाहरण भी रुय्यक ने 'काव्यप्रकाश' से ही लिये हैं । यमक, छेकानुप्रास, वृत्त्यनुप्रास, अतिशयोक्ति, विषम तथा अधिक के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा मम्मट से मिलती-जुलती ही है । यमक के जो तीन भेद — दोनो पदों की सार्थकता, दोनों की निरर्थकता तथा एक की सार्थकता एवं एक की निरर्थकता के आधार पर — रुय्यक ने स्वीकार किये हैं, उन भेदों की सम्भावना मम्मट के यमक - लक्षण में 'अर्थ सति' कथन में ही थी । मम्मट इस आधार पर भेद-कल्पना को समीचीन नहीं मानते थे । रुय्यक की अतिशयोक्ति का सामान्य स्वरूप मम्मट की अतिशयोक्ति से भिन्न नहीं । इसमें उपमान के द्वारा उपमेय का निगरणपूर्वक अध्यवसान तथा कार्य और कारण के पौर्वापर्य का व्यतिक्रम दोनों आचार्यों को अभीष्ट है । रुय्यक ने मम्मट के 'प्रस्तुतस्य अन्यत्व' के स्थान पर भेद में अभेद, अभेद में भेद, सम्बन्ध में असम्बन्ध तथा असम्बन्ध में सम्बन्ध - इन चार अतिशयोक्तिप्रकारों की कल्पना की है। भेद में अभेद तथा अभेद में भेद की कल्पना उद्भट से ली गयी है । उपमेय के अन्यत्व - प्रकल्पन-रूप अतिशयोक्ति का जो उदाहरण आचार्य मम्मट के 'काव्यप्रकाश' में दिया गया है उसमें अभेद में भेद दिखाया गया है । अन्य प्रभोद - कल्पना का अवकाश भी मम्मट के उक्त लक्षण में ही था । मम्मट के विषम के चार भेदों में से तीन को ही रुय्यक ने स्वीकार किया है । वे हैं - विरूप- कार्य की उत्पत्ति, अनर्थ की उत्पत्ति तथा विरूप की घटना । विषम के सामान्य स्वरूप के सम्बन्ध में रुय्यक की धारणा मम्मट की धारणा से अभिन्न है | अधिक के स्वरूप की कल्पना रुय्यक ने मम्मट से कुछ स्वतन्त्र रूप से की है, यद्यपि दोनों के अधिकलक्षण का स्रोत समान रूप से रुद्रट का द्वितीय अधिक- लक्षण है । रुद्रट की धारणा थी कि महान आधार में स्थित अल्प आधेय भी यदि आधार से
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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