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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्तर, (६८) सूक्ष्म, (६९) व्याजोक्ति, (७०) वक्रोक्ति, (७१) स्वभावोक्ति, (७२) भाविक, (७३) उदात्त, (७४) रसवत्, (७५) प्रेय, (७६), ऊर्जस्वी, (७७) समाहित, ( ७८) भावोदय ( ७९ ) भावसन्धि, ( 50 ) भावशबलता (८१) संसृष्टि और (८२) सङ्कर ।
कन्हैयालाल पोद्दार ने 'काव्यकल्पद्र ुम' के प्राक्कथन में लिखा है कि--' इस ग्रन्थ में (रुय्यक के अलङ्कारसूत्र में ) चौरासी अलङ्कार हैं ।" " पोद्दारजी का यह कथन प्रमाण-पुष्ट नहीं है । उक्त बयासी अलङ्कारों में अतिशयोक्ति के दो रूपों के आधार पर उसकी गणना दो बार की गयी है । दोनों की संख्या वस्तुतः एक ही मानी जानी चाहिए । अतः रुय्यक के अलङ्कारों की संख्या इक्यासी है ।
राजानक रुय्यक ने श्लेष के शब्दगत तथा अर्थगत भेद की पृथक्-पृथक् विवेचना नहीं कर एक ही परिभाषा में उन्हें परिभाषित किया है । उनके पूर्व शब्दश्लेष तथा अर्थश्लेष की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकृत थी; किन्तु रुय्यक ने श्लेष का एक ही लक्षण देकर उसके शब्दगत, अर्थगत तथा उभयये तीन भेद स्वीकार किये हैं । यमक आदि शब्दालङ्कारों तथा उपमा आदि अर्थालङ्कारों के भेदोपभेदों के जिस जाल की कल्पना पूर्ववर्ती आचार्यों ने की थी, उसके सरलीकरण की प्रवृत्ति रुय्यक में पायी जाती है ।
गत ;
रुय्यक के पूर्ववर्ती आचार्य मम्मट अपने समय तक अलङ्कार- शास्त्र के क्षेत्र में होने वाले अलङ्कार के स्वरूप निर्धारण सम्बन्धी ऊहापोहों का सम्यक् परीक्षण कर निष्कर्ष रूप में जिन अलङ्कारों के स्वरूप की स्थापना कर चुके थे, उनमें से प्रायः सभी अलङ्कारों को रुय्यक ने यत्किञ्चित् परिष्कार के साथ स्वीकार कर लिया है । मम्मट के कुछ अलङ्कारों के लक्षण की समीक्षा भी रुय्यक ने की है; किन्तु ऐसे अलङ्कारों की संख्या नगण्य है । कुछ अलङ्कारों के भेदोपभेदों की कल्पना भी उन्होंने स्वतन्त्र रूप से की है; पर अधिकांश अलङ्कारों के विषय में मम्मट की धारणा को उन्होंने यथावत् स्वीकार कर लिया है । अनेक अलङ्कारों के उदाहरण भी रुय्यक ने 'काव्यप्रकाश' से ही लिये हैं । निम्नलिखित अलङ्कारों के सम्बन्ध में मम्मट और रुय्यक की धारणा समान है: - चित्र, लाटानुप्रास, पुनरुक्तवदाभास, उपमा,
१. कन्हैयालाल पोद्दार, काव्यकल्पद्र ुम, द्वितीय भाग, प्राक्कथन, पृ० २०