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अलङ्कार-धारणा का विकास
राजानक रुय्यक
भामह, उद्भट और रुद्रट के बाद काव्यालङ्कार-धारणा के विशदीकरण में महनीय योग राजानक रुय्यक या रुचक ने दिया । उनका 'अलङ्कार-सूत्र' और उस पर 'अलङ्कार-सर्वस्व' नामक विवृति जो 'अलङ्कारसूत्र' के निर्णयसागर संस्करण के अनुसार मूल ग्रन्थकार के द्वारा ही रचित है, काव्य के अलङ्कारों के स्वरूप विवेचन की स्पष्टता की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण हैं । [ त्रिवेन्द्रम ग्रन्थमाला ने ‘अलङ्कार - सर्वस्व' को रुय्यक के शिष्य मङ्खक की रचना माना है । उक्त विवृति के रचयिता का निर्णय प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक का प्रकृत विषय नहीं है । ] अलङ्कार मीमांसा के क्षेत्र में रुय्यक का महत्त्व केवल पूर्ववर्ती आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित अलङ्कारों को सूत्रबद्ध कर सरल रूप में प्रस्तुत करने में ही नहीं है, वरन् कुछ नवीन अलङ्कारों की स्वीकृति और उनके स्वरूप-निरूपण में भी है । उनके द्वारा स्वीकृत प्रायः सभी अलङ्कार परवर्ती आचार्यों को मान्य हुए हैं । प्रस्तुत सन्दर्भ में रुय्यक के द्वारा कल्पित. नवीन अलङ्कारों का स्रोत-सन्धान अभिप्र ेत है ।
'अलङ्कार सूत्र' में निम्नलिखित अलङ्कार उल्लिखित हैं
(१) पुनरुक्तवदाभास, (२) छेकानुप्रास, (३) वृत्त्यनुप्रास, (४) यमक, (५) लाटानुप्रास, (६) चित्र, (७) उपमा, (८) अनन्वय, (९) उपमेयोपमा, (१०) स्मरण, (११) रूपक, (१२) परिणाम, (१३) सन्देह, (१४) भ्रान्तिमान्, (१५) उल्लेख, (१६) अपह्न ुति, (१७) उत्प्रेक्षा, (१८) अतिशयोक्ति, (१६) तुल्ययोगिता, ( २० ) दीपक, (२१) प्रतिवस्तूपमा, (२२) दृष्टान्त, (२३) निदर्शना, (२४) व्यतिरेक, (२५) सहोक्ति, (२६) विनोक्ति, (२७) समासोक्ति, ( २८ ) परिकर, ( २९ ) श्लेष, (३०) अप्रस्तुतप्रशंसा, (३१) अर्थान्तरन्यास, (३२) पर्यायोक्त, (३३) व्याजस्तुति, (३४) आक्षेप, (३५) विरोध, (३६), विभावना, (३७) विशेषोक्ति, (३८) अतिशयोक्ति, ( ३६ ) असङ्गति, (४०) विषम, ( ४१ ) सम, (४२) विचित्र, (४३) अधिक, (४४) अन्योन्य, (४५) विशेष, (४६) व्याघात, (४७) कारणमाला, (४८) एकावली, (४६) मालादीपक, (५०) सार, (५१) काव्यलिङ्ग, (५२) अनुमान, (५३) यथासंख्य,. (५४) पर्याय, (५५) परिवृत्ति, (५६) परिसंख्या, (५७) अर्थापत्ति, ( ५८ ) विकल्प, (५) समुच्चय, (६०) समाधि, (६१) प्रत्यनीक, (६२) प्रतीप, (६३) निमीलित, (६४) सामान्य, (६५) तद्गुण, (६६) अतद्गुण, (६.७ )