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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [४०५ वर्णसारूप्य के आधार पर अलङ्कार-विधान का मनोवैज्ञानिक कारण यह है कि समान स्वरूप वाले वर्ण मन पर समान प्रभाव उत्पन्न करते हैं। अतः जब एक-से वर्ण एक वाक्य या पद में बार-बार आते हैं तो समान ध्वनि-प्रभाव की एकतानता पाठक के मन पर बनी रहती है । सम-ध्वनि से मन में एकतान ध्वनि-प्रभाव की सृष्टि में ही अनुप्रास का अलङ्कारत्व है। भामह के 'काव्यालङ्कार' में प्राप्त सङ्केत से जान पड़ता है कि उनसे बहुत पहले ही अनुप्रास ने यमक से स्वतन्त्र अपना अस्तित्व बना लिया था। भामह ने 'काव्यालङ्कार' में ग्राम्यानुप्रास तथा लाटानुप्रास; इन दो अनुप्रास-रूपों का उल्लेख किया है।' प्रतिहारेन्दुराज ने उक्त अनुप्रासों का सम्बन्ध क्रमशः ग्राम्या या कोमला तथा उपनागरिका वृत्तियों से जोड़ा है। आचार्य दण्डी ने यद्यपि शब्दालङ्कार-निरूपण के सन्दर्भ में केवल यमक का सभेद निरूपण किया है, तथापि उनके 'काव्यादर्श' में अनुप्रास का स्पष्ट विवेचन हुआ है। उन्होंने गुण-विवेचन के प्रसङ्ग में श्रत्यनुप्रास-रूप माधुर्य गुण की चर्चा की और उसे वैदर्भ मार्ग के सरस काव्य का महत्त्वपूर्ण तत्त्व माना। उसी क्रम में उन्होंने गौड मार्ग के प्रदर्शन-प्रिय कवियों की अनुप्रास में विशेष रुचि की चर्चा की। दण्डी ने अनुप्रास को (श्र त्यनुप्रास से भिन्न वर्णावृत्ति-रूप अनुप्रास को) गौड मार्ग के काव्य का आदर्श मान कर श्रत्यनुप्रास की अपेक्षा उसे कम महत्त्व दिया है। दण्डी वैदर्भ मार्ग के काव्य को उत्तम कोटि का अकृत्रिम काव्य मानते थे। अतः, उस काव्य में ग्राह्य श्रु त्यनुप्रास दण्डी को अधिक अभिमत होगा। श्रुत्यनुप्रास में समान उच्चारण स्थान से उच्चरित होने वाले वर्णों की एकत्र योजना से भी समान प्रभाव उत्पन्न किया जा सकता है। जहाँ किसी भी प्रकार के अति-साम्य से समान प्रभाव मन पर उत्पन्न किया जा सकता हो, वहाँ अत्यनुप्रास माना गया है। दण्डी के अनुसार वर्णावृत्ति अनुप्रास का सामान्य लक्षण है। उद्भट ने यमक को छोड़ वर्ण, पद आदि के अभ्यास के रूप में केवल अनुप्रास का भेदसहित विवेचन किया है। उन्होंने अनुप्रास के मुख्य तीन रूप माने हैं--(१) छेकानुप्रास, (२) वृत्त्यनुप्रास और (३) लाटानुप्रास । वृत्त्यनुप्रास तत्तवृत्तियों पर आधृत है। अतः ग्राम्या या कोमला, परुषा तथा १. द्रष्टव्य-भामह, काव्यालं० २, ६-८ २. वर्णावृत्तिरनुप्रासः पादेषु च पदेषु च। -दण्डी, काव्याद० १, ५५ उसके श्लोक ५२ से ५८ तक द्रष्टव्य
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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