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३२२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
- 'कुवलयानन्द' में उपमा से लेकर हेतु तक जिन एक सौ अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन किया गया है, उनमें से प्रायः सभी को उसी क्रम से 'ललितललाम' में प्रस्तुत किया गया है । एक छोटा-सा भेद यह है कि 'कुवलयानन्द' के उन एक सौ अलङ्कारों में से एक काव्यलिङ्ग को मतिराम ने स्वीकार नहीं किया है। ऐसा होने पर भी 'ललितललाम' में अलङ्कारों की संख्या कम नहीं हुई। कारण यह हुआ कि एक अलङ्कार को छोड़ देने पर 'कुवलयानन्द' के ही एक अलङ्कार 'उत्तर' के दो रूपों का गूढोत्तर और चित्र नाम से पृथक्-पृथक् अस्तित्व स्वीकार कर लिया गया। मतिराम के पूर्व महाराज जसवन्त सिंह ने भी अप्पय्य के उत्तर के दो रूपों की पृथक्-पृथक् गणना कर ली थी। जसवन्त सिंह की यह मान्यता संम्ब्यागत एकरूपता की दृष्टि से मतिराम को भी अनुकूल जान पड़ी होगी। अप्पय्य दीक्षित ने हेतु-निरूपण के उपरान्त अपने अलङ्कारों की संख्या एक सौ बतायी थी। मतिराम भी सम्भवतः हेतु तक एक सौ अलङ्कारों का अस्तित्व मानना चाहते थे। इसीलिए एक को छोड़ देने पर दूसरे के दो रूपों को स्वतन्त्र अलङ्कार मान कर उन्होंने 'कुवलयानन्द' से संख्या-साम्य का निर्वाह कर लिया। ___अलङ्कार-धारणा में कुवलयानन्दकार के अनुयायी होने पर भी मतिराम ने रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी आदि रस-भावाश्रित अलङ्कारों तथा प्रमाणालङ्कारों का विवेचन नहीं किया है। उन्होंने संसृष्टि और सङ्कर का भी लक्षण-निरूपण नहीं किया है । संसृष्टि, सङ्कर आदि स्वतन्त्र अलङ्कार तो हैं भी नहीं, वे तो एकाधिक अलङ्कारों के सहभाव की विभिन्न स्थितियाँ-मात्र हैं। प्रमाणालङ्कारों का अलङ्कारत्व असन्दिग्ध नहीं। रस, भाव आदि के निबन्धन-रूप रसवदादि को भी केवल अलङ्कार मानना मतिराम को उचित नहीं जान पड़ा होगा। यह भी ध्यातव्य है कि रसवदादि तथा प्रमाणालङ्कारों के स्वरूप-निरूपण के पूर्व ही अप्पय्य दीक्षित ने 'कुवलयानन्द' में विवेचित हेतु तक के अलङ्कारों की गणना कर ली थी और उनकी संख्या एक सौ बतायी थी। इससे लगता है कि स्वयं अप्पय्य दीक्षित पूर्व-विवेचित अलङ्कारों से रसवदादि अलङ्कारों को कुछ भिन्न महत्त्व देना चाहते थे। यदि उनकी दृष्टि में सभी समान महत्त्व के भागी होते तो सबको मिलाकर एक ही साथ गिना गया होता । एक सौ स्वीकार्य अलङ्कारों के स्वरूप का विवेचन कर लेने के उपरान्त अप्पय्य ने सम्भवतः यह सुझाव-मात्र देना चाहा था कि रसवदादि-जैसी उक्तियों में भी अलङ्कारस्व माना जाना चाहिए, जिस सुझाव को मतिराम ने स्वीकार नहीं