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हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएं [ ३२१ मानते हैं तो निश्चित रूप से उस अप्रस्तुत से प्रस्तुत की व्यञ्जना माननी पड़ेगी, फिर तो यह उनकी समासोक्ति से अभिन्न हो जायगा । समासोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा की पृथक्-पृथक् सत्ता मानने पर भी समासोक्ति के सम्बन्ध में दण्डी आदि की धारणा को स्वीकार करने के कारण ही ऐसी गड़बड़ी हुई है।
उपरिविवेचित अलङ्कारों को छोड़, शेष अलङ्कारों के भेदसहित लक्षण महाराज जसवन्त सिंह ने 'कुवलयानन्द' के आधार पर ही दिये हैं। __इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि महाराज जसवन्त सिंह ने 'भाषाभूषण' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं की। उनका उद्देश्य संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र के बहुमान्य बलङ्कार-लक्षणों की भाषा में अवतारणा करना था। ऐसा करने में कुछ अलङ्कारों का स्वरूप कुछ अस्पष्ट अवश्य रह गया है; पर अधिकांशतः उनका आयास सफल रहा है। उन्होंने मुख्यतः 'कुवलयानन्द' के आधार पर अलङ्कारों का लक्षण-निरूपण किया है। पर यह मानने का सबल आधार है कि वे दण्डी, वामन आदि की अलङ्कारधारणा से भी पूर्णतः अवगत थे।
मतिराम मतिराम ने 'ललितललाम' में 'कुवलयानन्द' के आधार पर एक सो अर्थालङ्कारों का स्वरूप-विवेचन किया है। महाराज जसवन्त सिंह की अलङ्कार-धारणा के परीक्षण-क्रम में हम देख चुके हैं कि उन्होंने भी 'कुवलयानन्द' को अपना उपजीव्य बना कर अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण किया था; पर उनका आयास पूर्णतः सफल नहीं हुआ था। उनके अलङ्कारों का स्वरूप कहीं-कहीं अस्पष्ट रह गया था और कहीं-कहीं कुछ भ्रमात्मक स्थापनाएं भी हो गयी थीं। मतिराम ने महाराज जसवन्त को अपने अलङ्कार-विवेचन का आदर्श नहीं मान कर सीधे अप्पय्य के 'कुवलयानन्द' को ही 'आकर' माना। यद्यपि मतिराम ने जसवन्त सिंह की तरह एक ही छन्द में लक्षण-उदाहरण वाली 'कुवलयानन्द' की शैली को नहीं अपनाया है और फलतः उनका 'ललितललाम' बाह्य-रूप-विधान की दृष्टि से 'कुवलयानन्द' के उतना निकट नहीं है, जितना निकट जसवन्त का 'भाषाभूषण' है; पर यह स्पष्ट है कि 'कुवलयानन्द की आत्मा को 'ललितललाम' में अधिक सफलता से अवतरित किया गया है।
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