________________
३२० ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
समासोक्ति का लक्षण-निरूपण जसवन्त सिंह ने 'कुवलयानन्द' के आधार पर नहीं कर दण्डी के 'काव्यादर्श' के आधार पर किया है। दण्डी की समासोक्ति-परिभाषा की व्याख्या में नृसिंह देव ने अप्रस्तुत-वर्णन से प्रस्तुत अर्थ की अभिव्यक्ति को समासोक्ति में दण्डी का अभिमत सिद्ध किया है। जसवन्त सिंह भी अप्रस्तुत-वर्णन में प्रस्तुत की स्फूर्ति को समासोक्ति का लक्षण मानते हैं, अप्पय्य की तरह प्रस्तुत-वर्णन में अप्रस्तुत की स्फूर्ति को नहीं।
अप्रस्तुतप्रशंसा के केवल दो भेद 'भाषाभूषण' में स्वीकृत हैं, अप्पय्य के पाँच नहीं। अप्रस्तुत-वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना को समासोक्ति मान लेने पर अप्रस्तुतप्रशंसा के सम्बन्ध में अप्पय्य से सहमत होना जसवन्त सिंह के लिए सम्भव नहीं था। कारण, अप्रस्तुत से प्रस्तुत की अवगति को अप्पय्य अप्रस्तुतप्रशंसा मानते हैं और जसवन्त समासोक्ति। अतः, जसवन्त सिंह ने अप्रस्तुतप्रशंसा के स्वरूप की कल्पना अप्पय्य दीक्षित की तद्विषयक धारणा से किञ्चित् स्वतन्त्र रूप से की है। उनके अनुसार जहाँ प्रस्तुत को छोड़ केवल अप्रस्तुत का वर्णन होता हो, अथवा प्रस्तुत का भी अंशतः वर्णन करने के साथ अप्रस्तुत का वर्णन किया जाता हो, इन दोनों ही स्थितियों में अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना जाता है । यह मान्यता वामन की समासोक्ति-विषयक मान्यता से प्रभावित है। वामन ने प्रस्तुत के अनुक्त होने में समासोक्ति अलङ्कार माना था। दण्डी, वामन आदि की समासोक्ति पीछे चल कर अप्रस्तुतप्रशंसा के रूप में स्वीकृत हुई और समासोक्ति में उसके विपरीत स्वभाव ( प्रस्तुत से अप्रस्तुत की व्यञ्जना ) की कल्पना की गयी। महाराज जसवन्त सिंह ने दण्डी के समासोक्ति-लक्षण को समासोक्ति के लिए स्वीकार किया और उसीसे मिलते-जुलते वामन के समासोक्ति-लक्षण का उपयोग अप्रस्तुतप्रशंसा की परिभाषा में करना चाहा। फल यह हुआ कि उनकी अप्रस्तुतप्रशंसा का स्वरूप उन्हीं की समासोक्ति के स्वरूप से स्पष्टतः स्वतन्त्र नहीं हो पाया। यदि वे प्रस्तुत के बिना अप्रस्तुत का वर्णन अप्रस्तुतप्रशंसा
१. समासोक्ति प्रस्तुत फुरैऽप्रस्तुत वर्णन माँझ ।
-जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, ६५ २. अलङ्कार द्व भाँति को अप्रस्तुत प्रशंस । इक वर्णन प्रस्तुत बिना दूज प्रस्तुत अंस ।
-वही, ६६