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हिन्द रीति- साहित्य में अलङ्कार - विषयक उद्भावनाएँ [ ३१९
का सम होना' अपेक्षित माना है ।' यह कथन निदर्शना के स्वरूप को पूर्णतः - स्पष्ट नहीं कर पाता । निदर्शना के अन्य दो भेदों के लक्षण 'कुवलयानन्द' में दिये गये लक्षण के समान ही हैं ।
व्याघात का लक्षण भी 'भाषाभूषण' में कुछ अस्पष्ट रह गया है । इस अलङ्कार के दो रूपों की कल्पना 'कुवलयानन्द' में की गयी थी । एक में किसी वस्तु का जैसे कार्य का साधन होना लोक- प्रसिद्ध हो, उसके विरुद्ध कार्य का "साधन बनाया जाना वाञ्छनीय माना गया है । इस बात को इस वाक्य से व्यक्त किया गया है
व्याघात जो कछु और तें कीजें कारज और । २
स्पष्ट है कि 'कुवलयानन्द' की व्याघात - परिभाषा से यह परिभाषा कुछ अस्पष्ट है । व्याघात के दूसरे रूप की परिभाषा 'कुवलयानन्द' की परिभाषा के समान है ।
उदात्त में समृद्धि चरित, श्लाघ्य चरित तथा अन्योपलक्षण की धारणा 'कुवलयानन्द' में व्यक्त की गयी थी । समृद्धि, श्लाघ्य आदि के चरित का स्पष्ट उल्लेख नहीं कर भाषाभूषणकार ने उपलक्षण से आधिक्य वर्णन में उदात्त का सद्भाव माना है | 3
अत्युक्ति के लक्षण में 'भाषाभूषण' में सातिशय-रूप का वर्णन अपेक्षित बताया गया है । इस प्रकार अतिशयोक्ति से इसका भेद स्पष्ट नहीं रह पाता । 'कुवलयानन्द' में अद्भुत शौर्य, औदार्य आदि के वर्णन में अत्युक्ति का सद्भाव माना गया था । उसे 'भाषाभूषण' में कुछ अस्पष्ट रूप में प्रस्तुत किया किया है ।
लेश अलङ्कार को जसवन्त सिंह ने लेख कहा है । परम्परा से स्वीकृत लेश नाम के स्थान पर लेख नाम का प्रयोग करने का कोई कारण नहीं दीखता । सम्भव है कि लेख अपपाठ हो । उसका स्वरूप अप्पय्य दीक्षित के लेश के स्वरूप से अभिन्न है । ४
१. तुलनीय - जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, ८८-८६ तथा अप्पय्य, कुवलयानन्द, ५३-५६
२. जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, १३५ ३. वही, १६२
४. तुलनीय - भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, १६७ तथा
कुवलयानन्द, १३८