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________________ ३१८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण में 'एक शब्द में हित अहित' कहा गया है। यह कथन तो कुवलयानन्दकार के मत को किसी तरह स्पष्ट कर देता है; किन्तु तुल्ययोगिता के शेष दो रूपों के “सम्बन्ध में प्राचीन आचार्यों की मान्यता जितनी स्पष्ट थी, उतनी स्पष्ट परिभाषा जसवन्त सिंह नहीं दे सके हैं। अप्पय्य की इस परिभाषा को कि 'तुल्ययोगिता में अनेक प्रस्तुतों और अनेक अप्रस्तुतों में परस्पर धर्म की एकता होती है', जसवन्त सिंह ने इस प्रकार प्रस्तुत किया है-'बहु में एक बानि ।' 'बहु' से बहुत वर्गों का या बहुत अवर्यों का धर्मगत ऐक्य का भाव स्पष्ट नहीं होता। इस उक्ति की अशक्ति इस बात में है कि इसमें दीपक से तुल्ययोगिता का भेद कराने वाले तत्त्व का उल्लेख नहीं है। तुल्ययोगिता के तीसरे प्रकार के सम्बन्ध में अप्पय्य की मान्यता थी कि इसमें उत्कृष्ट गुण वाले के साथ समीकरण कर वस्तु का वर्णन होता है । इसे ही जसवन्त सिंह ने 'बहु सौं समता गुननि करि' कहा है।' गुण से ही उनका अभिप्राय सम्भवतः उत्कृष्ट गुण का रहा है। प्रतिवस्तूपमा के लक्षण में जसवन्त सिंह ने कहा है कि जहाँ दोनों वाक्य समान हों, वहां प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार होता है । प्रस्तुत तथा अप्रस्तुत वाक्यों में एक ही समान धर्म का पृथक्-पृथक् निर्देश होने में कुवलयानन्दकार ने प्रतिवस्तूपमा अलङ्कार माना था। दो वाक्यों के समान होने के कथन से प्रतिवस्तूपमा का स्वरूप उतना स्पष्ट नहीं हो पाता। __ दृष्टान्त की परिभाषा तो 'भाषाभूषण' में और भी अस्पष्ट है। इसके सम्बन्ध में केवल इतना ही कह दिया गया है कि इसके नाम से ही इसका लक्षण समझा जा सकता है। यह ठीक है कि काव्य के अलङ्कारों की - संज्ञा अधिकतर अन्वर्थ ही है; पर इससे उन अलङ्कारों को परिभाषित करने के दायित्व से आचार्य मुक्त नहीं हो जाते । निदर्शना के लक्षण में सदृश वाक्यार्थ में ऐक्यारोप की धारणा अप्पय्य ने व्यक्त की थी। इसके स्थान पर जसवन्त सिंह ने निदर्शना में वाक्य अर्थ १. जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ कार प्रकरण, ८० २. प्रतिवस्तूपमा समझिये दोऊ वाक्य समान । बही, ८६ ३. द्रष्टव्य-अप्पय्य, कुवलयानन्द, ५१ ४. अलङ कार दृष्टान्त सो लच्छन नाम प्रमान । -जसवन्त, भाषाभूषण, अलङ्कार प्रकरण, ८७
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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