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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद
[७४७लक्षणा अभेद-प्रतीति का आधार होती है; पर निदर्शना में अभेद की अनुपपत्ति की प्रतीति से ही अभेद का प्रत्यायन होता है। अनुपपत्तिजन्य अभेद-प्रतीति को निदर्शना का तथा लक्षणामूलक अभेद को रूपक का व्यवच्छेदक मानकर उद्योतकार ने दोनों का भेद-निरूपण किया है।' रूपक और सन्देह
पण्डितराज ने रूपक-लक्षण में उपमेय और उपमान में आहार्य ताद्र प्य के निश्चय की चर्चा कर सन्देह से उसका भेद स्पष्ट कर दिया है । २ सन्देह में अनिश्चयात्मक ज्ञान रहता है, पर रूपक में आहार्य ताद्र प्य का निश्चयात्मक ज्ञान । भ्रान्तिमान और उल्लेख
भ्रान्तिमान् में किसी वस्तु को देख कर प्रमाता को उस वस्तु के समान अन्य वस्तु का निश्चयात्मक ज्ञान हो जाता है। उल्लेख का इस भ्रान्तिमान् से मुख्य भेद यह है कि उल्लेख में निमित्त-भेद से अनेक प्रमाता को एक ही वस्तु अनेक रूप में गृहीत होती है। प्रमाता की अनेकता तथा वस्तु के अनेकधा ग्रहण में निमित्त-भेद उल्लेख का व्यावर्तक है। पण्डितराज ने इसी आधार पर भ्रान्तिमान् से उल्लेख का व्यावर्तन किया है। 3 'अलङ्कारसर्वस्व' में भी अनेकधा ग्रहण के चमत्कार को उल्लेख का व्यवच्छेदक माना गया है।४
१. .."अतिशयोक्त: साध्यवसानलक्षणामूलकत्त्वात्तस्य (उपमेयस्य)
पुरस्काराभावात् । अतिशयोक्तिवत् निदर्शनायामपि नातिव्याप्तिः । शब्दादिति विशेषणात्"।-काव्यप्र० उद्योत, उद्धत, बालबोधिनी,
पृ० ५६३ २. उपरञ्जकतामहार्यताद्र प्यनिश्चयगोचरतामित्यनेन सन्देहोत्प्रक्षा.... भ्रान्तिमत्स्वतिव्याप्तिनिरासः । सन्देहोत्प्रक्षयोनिश्चयस्यैवाभावात्...
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ३५७-५८ ३. लक्षण, (भ्रान्तिमान्लक्षणे) चात्रैकत्वं विवक्षितमन्यथा वक्ष्यमाणाने
कग्रहीतृकानेकप्रकारकैकविशेष्यकभ्रान्तिसमुदायात्मन्युल्लेखेऽतिप्रसङ्गा --
पत्त: । अत एवैकवचनमपि सार्थकम् ।-वही, पृ० ४२२ ४. एवं तहि तत्र विषये भ्रान्तिमदलङ्कारोऽस्तु । अतद्र पस्य तद्र पताप्रतीतिनिबन्धनत्वात्। नतत्। अनेकधाग्रहणाख्यस्यातिशयस्यापूर्वस्य भावात् । तद्ध तुकत्वाच्चास्यालङ्कारस्य ।
"-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व पृ० ४६