SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 463
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४४० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उद्भट ने रूपक की परिभाषा किञ्चित् स्वतन्त्र रूप में दी है । उन्होंने उपमान और उपमेय के गुण-साम्य की चर्चा छोड़ कर लक्षणा वृत्ति के आधार पर एक पद से दूसरे पद के सम्बन्ध में रूपक अलङ्कार का सद्भाव माना है । रूपक - परिभाषा में गौणीवृत्ति का उल्लेख निस्सन्देह तथ्य के स्पष्टीकरण की दृष्टि से उद्भट की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि है । रूपक में प्रस्तुत पर अप्रस्तुत का आरोप लक्षणा से ही सम्भव होता है । भरत, भामह आदि की रूपक - परिभाषाओं में भी आरोप की सङ्गति गौणीवृत्ति के आधार पर ही मानी जायगी। उद्भट ने इसी तथ्य के स्पष्टीकरण के लिए गौणीवृत्ति का उल्लेख करते हुए कहा कि जहाँ श्र ुति ( अर्थनिष्ठ निरन्तर शब्द- व्यापार अर्थात् मुख्य वृत्ति) से प्रतिपादित अर्थ से सम्बन्ध का अभाव होने पर गौणीवृत्ति से पद का पदान्तर से सम्बन्ध होता है, वहाँ रूपक अलङ्कार होता है । " आचार्य वामन ने भामह के रूपक - लक्षण को ही सूत्रबद्ध किया है । रुद्रट ने रूपक के मुख्य दो प्रकार स्वीकार कर उन्हें पृथक् पृथक् परिभाषित किया । प्रथम रूपक - लक्षण में उन्होंने भ मह के मत का अनुसरण करते हुए गुण- साम्य के कारण उपमान और उपमेय का अभेद वाञ्छनीय बताया, साथ ही उत्प्रेक्षा से उसका भेद निरूपित करने के लिए उसकी परिभाषा में 'अविवक्षित सामान्या' विशेषण भी जोड़ दिया । इस प्रकार रुद्रट की मान्यता यह थी कि उपमान और उपमेय का अभेद तो रूपक और उत्प्रेक्षा — दोनों में समान रूप से रहता है; पर उत्प्रेक्षा से रूपक का यह भेद है कि उत्प्र ेक्षा में छल, छद्म, व्याज आदि शब्दों से उपमान और उपमेय के बीच अभेद और भेद विवक्षित रहता है; पर रूपक में सामान्य विवक्षित नहीं रहता । रूपक में भी उपमान और उपमेय के बीच सामान्य (कोई साधारण - धर्म) रहता तो अवश्य है; पर वह अविवक्षित रहता है । रुद्रट के रूपक का दूसरा प्रकार १. श्र ुत्या सम्बन्धविरहाद्यत्पदेन पदान्तरम् । गुणवृत्तिप्रधानेन युज्यते रूपकं तु तत् ॥ - उद्भट, काव्यलं० सारसं० १, २१ २. उपमानेनोपमेयस्य गुणसाम्यात् तत्त्वारोपी रूपकम् । — वामन, काव्यालं० सू० ४, ३-६ तुलनीय, भामह, काव्यालं० २,२१ ३. यत्र गुणानां साम्ये सत्युपमानोपमेययोरभिदा । अविवक्षित सामान्या कल्प्यत इति रूपकं प्रथमम् ॥ — रुद्रट, काव्यालं० ८, ३८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy