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अलङ्कारों का स्वरूप-विकास
[ ४४१ “समस्त' रूपक है, जिसकी परिभाष कहा गया है कि इसमें उपमान और उपमेय का समास कर उपमेय को गौण रूप में प्रस्तुत किया जाता है।' रूपक के प्रथम प्रकार में उपमान और उपमेय पृथक्-पृथक् रहते हैं; पर द्वितीय प्रकार में वे समस्त रहते हैं । रुद्रट के ये दो रूपक क्रमशः व्यस्त तथा समस्त रूपक-भेदों के रूप में परवर्ती आचार्यों के द्वारा स्वीकृत हुए हैं। __कुन्तक ने आचार्य उद्भट के मत का अनुसरण करते हुए उपमान के द्वारा उपमेय को अपने रूप को अर्पण रूपक का लक्षण माना और इस रूपार्पण की प्रक्रिया के मूल में निहित प्रस्तुत-अप्रस्तुत की समता का प्राण-भूत तत्त्व उपचार-वक्रता को स्वीकार किया। भोज ने भी रूपक का मूलाधार लक्षणावृत्ति को स्वीकार कर उद्भट की रूपक-धारणा का ही अनुमोदन किया है। अग्निपुराणकार ने भामह और दण्डी–दोनों के रूपक-लक्षणों को उद्धृत कर दिया है। मम्मट, रुय्यक आदि आचार्यों को आचार्य दण्डी का रूपक-लक्षण उपयुक्त जान पड़ा और उन्होंने उसी के आधार पर रूपक को परिभाषित किया। मम्मट ने उपमान और उपमेय के अभेद को रूपक का लक्षण स्वीकार किया।५ दण्डी के रूपक-लक्षण का भी निष्कर्ष यही था। रुय्यक ने भी अभेद'प्रधान आरोप को (उपमेय पर उपमान के आरोप को) रूपक का प्रधान लक्षण माना और अपह्न ति से उसके भेद-निरूपण के लिए परिभाषा में "आरोप-विषयानपह्नवे' पद जोड़ दिया।६ रूपक में विषय का निगरण नहीं होता, केवल उस पर विषयी का आरोप होता है ।
उत्तर काल में परम्परानुमोदित रूपक-धारणा ही प्रस्तुत की गयी है । यह सत्य है कि रूपक की निर्दोष परिभाषा की स्थापना के आयास-क्रम में
१. उपसर्जनोपमेयं कृत्वा तु समासमेतयोरुभयोः ।
यत्तु प्रयुज्यते तद्र पकमन्यत्समासोक्तम् ।।-रुद्रट, काव्यालं० ८, ४० २. उपचारैकसर्वस्वं यत्र (वस्तु) तत् साम्य मुद्वहत् । यदर्पयति रूपं स्वं वस्तु तद् रूपकं विदुः ॥
-कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३, २० ३. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठा० ४, २४ ४. द्रष्टव्य, अग्निपुराण, अध्याय ३४४ ५. तद्पकमभेदो य उपमानोपमेययोः । -मम्मट, काव्यप्र० १०,१३६ ६. अभेदप्राधान्य आरोप आरोपविषयानपह्नवे रूपकम् ।
-रुय्यक अलं० सर्वस्व १५