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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
उत्तरकालीन आचार्यों ने पूर्ववर्ती आचार्यों की रूपक-परिभाषा का खण्डन कर नवीन रूप से उसे परिभाषित करने का प्रयास किया है। शोभाकर के द्वारा रुय्यक-प्रदत्त रूपक-परिभाषा का खण्डन तथा पण्डितराज जगन्नाथ के द्वारा अप्पय्य की 'चित्रमीमांसा' के रूपक-लक्षण का खण्डन ऐसा ही प्रयास है।' पर, ऐसे खण्डन-मण्डन के प्रयास के होने पर भी रूपक के स्वरूप की मूलधारणा में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ।
हिन्दी-रीति-आचार्यों ने भी रूपक के प्राचीन स्वरूप को ही परिभाषित किया है। रूपक अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों की धारणा के सार निम्नलिखित हैं :
(क) इस अलङ्कार में उपमान और उपमेय में अभेद की प्रतीति होती है। दूसरे शब्दों में, उपमान के साथ उपमेय का तत्त्व अर्थात् ताद्र प्य या अभेद दिखाना रूपक का प्रधान लक्षण है।
(ख) इस अभेद-प्रतीति का हेतु दोनों के बीच गुण की समता है ।
(ग) इसमें उपचार या लक्षणा का चमत्कार निहित रहता है; क्योंकि प्रस्तुत का अप्रस्तुत के साथ ताद्र प्य लक्षणा शक्ति से ही उपपन्न हो सकता है।
(घ) उपमा से रूपक का केवल इतना भेद है कि उपमा में प्रस्तुत और अप्रस्तुत के बीच साधर्म्य में भेदाभेद की प्रधानता रहती है; पर रूपक में दोनों के बीच साधर्म्य अभेद-प्रधान होता है।
(ङ) रूपक में उपमेय और उपमान का सामान्य अर्थात् साधारण धर्म विवक्षित नहीं होता।
(च) रूपक में उपमेय और उपमान पृथक्-पृथक् भी रह सकते हैं और दोनों का समास कर उपमेय को गौणरूप में भी प्रस्तुत किया जा सकता है। इस आधार पर रूपक के व्यस्त और समस्त, दो रूप होते हैं । रूपक-भेद
संस्कृत-अलङ्कारशास्त्र के विभिन्न आचार्यों ने अलग-अलग रूप में रूपक के भेदों की कल्पना की है। हम देख चुके हैं कि रूपक के समस्तवस्तुविषय और एकदेश विवति अथवा साङ्ग और निरङ्ग भेदों की कल्पना आरम्भ से
१. द्रष्टव्य, शोभाकर, अलङ्काररत्नाकर, पृ० ३२ तथा जगन्नाथ, चित्र
मीमांसा-खण्डन पृ० ४४-५३