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५०८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विशेष प्रतिपादन के लिए उसका निषेध-सा किया जाना, अर्थात् निषेधाभास . आक्षेप में अपेक्षित माना है।
शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने स्वकथित का विचार के बाद प्रतिषेध आक्षेप का लक्षण माना। अप्पय्य-दीक्षित ने अन्य आचार्यों की आक्षेप-विषयक मान्यता का भी निर्देश किया है।२ जयदेव की तरह वाग्भट, कर्णपूर, विश्वेश्वर पण्डित आदि ने प्रतिषेध को ही आक्षेप का लक्षण माना है। विद्याधर, विद्यानाथ, विश्वनाथ, जगन्नाथ, केशव मिश्र, नरसिंह आदि ने भामह की तरह निषेधाभास को आक्षेप माना।
आक्षेप के लक्षणों के इस अध्ययन से स्पष्ट है कि उसकी धारणा में विकास की कई कोटियाँ आयी हैं। विकास के मूल में आक्षेप शब्द के विभिन्न अर्थ रहे हैं। निन्दा, निवर्तन या निषेध, आक्षेपेण बोध आदि अर्थों के आधार पर क्रमशः उपमेयाक्षेप (कुन्तक); उक्त का निषेध (जयदेव आदि), श्र ति से अलभ्य अर्थ का आक्षेप ( ध्वनि ? ) से बोध (अग्निपुराण) आक्षेप अलङ्कार का लक्षण माना गया है। उक्त मतों में से आक्षेप के निम्नलिखित रूप अनेक आचार्यों का समर्थन पाते रहे हैं :
(क) निषेधाभास अर्थात् अभीष्ट अर्थ का निषेध-सा किया जाना, (ख) कुछ कहकर पुनः विचार कर उस कहे हुए का प्रतिषेध करना तथा (ग) विधिमुखेन निषेध किया जाना।
श्राक्षेप-भेद
उक्त तथा वक्ष्यमाण के आधार पर आक्षेप के दो भेद किये गये हैं। तीन काल के आधार पर दण्डी ने उसके तीन भेद किये हैं । उन्होंने धर्म, कार्य, अनुज्ञा, प्रभुत्व, अनादर, आशीर्वचन, परुष, साचिव्य, यत्न, उपमा, मूर्छा, अनुक्रोश, "श्लिष्ट, अनुशय, संशय तथा अर्थान्तर नामक आक्षेप-भेदों का सोदाहरण निरूपण
१. निषेधो वक्तुमिष्टस्य यो विशेषाभिधित्सया । वक्ष्यमाणोक्तविषयः स आक्षेपो द्विधा मतः ।
-मम्मट, काव्यप्र० १०,१६१ तथा उक्तवक्ष्यमाणयोः प्राकरणिकयोविशेषप्रतिपत्त्यर्थ निषेधाभास आक्षेपः ।
–रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, सूत्र सं० ३८ २. द्रष्टव्य, अप्पय्य दी०, कुवलया० ७३-७५