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बलङ्कारों का पारस्परिक भेद
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रुय्यक को भी उद्भट का मत मान्य है। उन्होंने अप्रस्तुतप्रशंसा के पांच भेदों में से चार के सम्बन्ध में कहा है कि यदि सामान्य-विशेष और कार्य-कारण वाच्य हों, तो अर्थान्तरन्यास अलङ्कार होता है और सामान्य-विशेष तथा कार्यकारण के युग्मों में से जहाँ एक ( अप्रस्तुत ) वाच्य और अन्य ( प्रस्तुत ) गम्य हो, वहाँ अप्रस्तुतप्रशंसा अलङ्कार माना जाता है ।' अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि की भी यही मान्यता है कि अर्थान्तरन्यास में सामान्य-विशेष दोनों ही समर्थ्य-समर्थक के रूप में वाच्य होते हैं । इसी प्रकार कार्य-कारण में भी समर्थ्य-समर्थकभाव रहने पर दोनों वाच्य रहते हैं, पर अप्रस्तुतप्रशंसा में केवल अप्रस्तुत ही (चाहे वह विशेष हो, सामान्य हो, कार्य हो या कारण हो) वाच्य होता है अन्य गम्य ।२ समर्थ्य-समर्थक-सामान्य-विशेष या कार्यकारणमें से दोनों अङ्गों का वाच्य होना तथा एक अङ्ग का-अप्रस्तुत का-वाच्य और दूसरे प्रस्तुत का-गम्य होना अर्थान्तरन्यास तथा अप्रस्तुतप्रशंसा का मुख्य भेदक धर्म है।
'अर्थान्तरन्यास और काव्यलिङ्ग
आचार्य दण्डी आदि प्राचीन आचार्य सामान्य का विशेष से अथवा विशेष का सामान्य से समर्थन अर्थान्तरन्यास का विषय मानते थे। कारण का कार्य से समर्थन अथवा कार्य का कारण से समर्थन उनके अनुसार अर्थान्तरन्यास के क्षेत्र में समाविष्ट नहीं था। इसी आधार पर 'काव्यादर्श' के टीकाकार नृसिंहदेव ने काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास का विषय-विभाग किया है कि कार्य का कारण से समर्थन तथा कारण का कार्य से समर्थन काव्यलिङ्ग का विषय है और सामान्य का विशेष से समर्थन तथा विशेष का सामान्य से
१. तदत्र सामान्यविशेषत्वेन कार्यकारणत्वेन सारूप्येण च यद् भेदपञ्चक
मुद्दिष्ट, तत्रो द्वयोः सामान्य विशेषयोः कार्यकारणयोश्च यदा वाच्यत्वं भवति, तदा अर्थान्तरन्यासाविर्भावः। 'अप्रस्तुतस्य वाच्यत्वे प्रस्तुतस्य गम्यत्वे सर्वत्राप्रस्तुतप्रशंसेति निर्णयः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १२६-३० २. द्रष्टव्य-अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, १२२-२२ की वृत्ति पृ० १४०
४१ तथा जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ६४८