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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
बिम्बप्रतिबिम्बभाव की कल्पना न कर ली जाय, पर दृष्टान्त में वाक्यार्थ · पर्यवसित ही रहता है। अर्थान्तरन्यास और अप्रस्तुतप्रशंसा
आचार्य उद्भट के टीकाकार तिलक ने एक उदाहरण को दृष्टि में रखते हुए यह प्रश्न उठाया है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में भी वाच्य विशेष से गम्य सामान्य समर्थित होता है, और विशेष से सामान्य का समर्थन अर्थान्तरन्यास का भी लक्षण है, फिर अर्थान्तरन्यास और अप्रस्तुतप्रशंसा में क्या अन्तर है ? हम इस प्रश्न का स्पष्टीकरण कर लें। अप्रस्तुतप्रशंसा में केवल अप्रकृत का कथन होता है और प्रकृत उससे गम्य होता है। यदि किसी विशेष अप्रकृत के वर्णन -से किसी सामान्य प्रकृत अर्थ की प्रतीति होती हो-जैसा कि एक उदाहरण में विवृतिकार ने दिखाया है तो उस वाच्य विशेष अर्थ में और गम्य सामान्य अर्थ में समर्थ्य-समर्थक भाव माना ही जायगा, क्योंकि अप्रकृत विशेष के कथन की सार्थकता उससे गम्यमान प्रकृत सामान्य अर्थ के समर्थन में ही होगी। इस प्रकार अप्रस्तुतप्रशंसा में भी सामान्य और विशेष में समर्थ्य-समर्थक सम्बन्ध होने से सामान्य-विशेष के समर्थ्य-समर्थक सम्बन्ध पर आश्रित अर्थान्तरन्यास से अप्रस्तुतप्रशंसा का भेद ही क्या रह जायगा? इस सम्भावित प्रश्न का उत्तर उद्भट ने यह कह कर दे दिया था कि अर्थान्तरन्यास में प्रकृत अर्थ का अन्य अर्थ से समर्थन होता है। अतः यह अप्रस्तुतप्रशंसा से भिन्न है ।' तात्पर्य यह कि अर्थान्तरन्यास में चूकि अर्य के अनुपपन्न होने की सम्भावना से उसके समर्थन के लिए अन्य अर्थ का न्यास किया जाता है, इसलिए उसमें समर्थ्य वाक्यार्थ-विशेष या सामान्य-अन्य वाक्यार्थ की अपेक्षा रखता है। उसमें समर्थ्य तथा समर्थक दोनों अर्थों का उपादान होता है, पर अप्रस्तुतप्रशंसा में एक ही अर्थ (केवल अप्रस्तुत अर्य) का उपादान होता है। निष्कर्षतः, समर्थ्यसमर्थक सामान्य-विशेष अर्यों का उपादान अर्थान्तरन्यास का तथा उनमें से केवल अप्रस्तुत सामान्य या विशेष अर्य का उपादान कर उससे गम्य विशेष या सामान्य अर्थ का समर्थन अप्रस्तुतप्रशंसा का व्यावर्तक है।
१. x x x प्रकृतार्थसमर्थनात् । अप्रस्तुतप्रशंसाया दृष्टान्ताच्च पृथक् स्थितः ।।
-उद्भट, काव्यालङ्कारसारसंग्रह, २,७