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७०४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण समर्थन अर्थान्तरन्यास का विषय है।' मम्मट भी सामान्य-विशेष के समर्थ्यसमर्थक भाव में ही अर्थान्तरन्यास मानते हैं ।२ उद्योतकार ने इस तथ्य के स्पष्टीकरण के क्रम में कहा है कि समर्थ्य-समर्थक में सामान्य-विशेष-सम्बन्ध रहने पर अर्थान्तरन्यास होता है। कारण से कार्य अथवा कार्य से कारण का समर्थन काव्यलिङ्ग का विषय है। 3 रुय्यक ने कार्यकारण में समर्थ्य-समर्थक भाव को भी अर्थान्तरन्यास में समाविष्ट कर काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास का भेद-निरूपण किया है। काव्यलिङ्ग में कारण का वाक्यार्थ की रीति से, या विशेषण के रूप में पदार्थ रीति से, लिङ्गरूप में निबन्धन होता है। इनमें से वाक्यार्थरूप में निबद्ध हेतु का अर्थान्तरन्यास से रूप-साम्य प्राप्त होता है। अतः दोनों का भेद-निरूपण अपेक्षित है । काव्यलिङ्ग में वाक्यार्थ का निबन्धन हेतु रूप में ही किया जाता है, पर अर्थान्तरन्यास में उपनिबद्ध वाक्यार्थ को हेतु बनाया जाता है; यही दोनों का मुख्य भेद है।।
अप्पय्य दीक्षित ने रुय्यक की उक्त मान्यता को अस्वीकार करते हुए केवल सामान्य विशेष के समर्थ्य-समर्थक भाव में ही अर्थान्तरन्यास माना है। कारणकार्य आदि के समर्थ्य-समर्थक सम्बन्ध को उन्होंने काव्यलिङ्ग का विषय माना है। उनकी मान्यता है कि कारण-कार्य में भी समर्थ्य-समर्थक भाव को अर्थान्तरन्यास मानने से काव्यलिङ्ग से उसका भेद ही नहीं रह जायगा । दोनों के विषय-विभाग के लिए जो यह युक्ति दी गयी है कि समर्थन सापेक्ष अर्थ
१. कारणेन कार्यस्य कार्येण वा कारणस्य समर्थ नन्तु का व्यलिङ्गस्य
विषयः, समर्थ्यसमर्थकयोः सामान्य विशेषभावसम्बन्धेऽर्थान्तरन्यासः तदितरसम्बन्धे काव्यलिङ्गमिति स्वीकारात् एतयोरपि विशेषः ।
-काव्यादर्श, कुसुमप्र० टीका, पृ० १५२ २. सामान्यं वा विशेषो वा यदन्येन समर्थ्यते । यत्त सोऽर्थान्तरन्यास: साधयेणेतरेण वा ॥
-मम्मट, काव्यप्रकाश, १०,१०६ ३. कारणेन कार्यस्य कार्येण कारणस्य वा समर्थनं तु काव्यलिङ्गस्य विषयः । समर्थ्यसमर्थकयोः सामान्यविशेषसम्बन्धेऽयम्, तदितरसम्बन्धे काव्य लिङ्गमित्यभ्युपगमात् ।।
-काव्यप्र० उद्योत, बालबोधिनी में उद्ध त, पृ० ६६१ ४. यत्र तु वाक्यार्थस्य हेतुत्वं, तत्र हेतुत्वप्रतिपादकमन्तरेण हेतुत्वेनोपन्यासे काव्यलिङ्गमेव । तटस्थत्वेनोपन्यस्तस्य तु हेतुत्वेऽर्थान्तरन्यासः ।
-रुय्यक, अलङ्कारसर्वस्व, पृ० १८१