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________________ अलङ्कार का स्वरूप और काव्य में उसका स्थान [ २५ · की तरह अनिर्वचनीय तक कहा है । ' कुन्तक ने भी काव्य को निरवयव या सम्पूर्ण अभिव्यक्ति माना है । काव्य-समीक्षक की दृष्टि से क्रोचे का मत अशक्त है । क्रोचे कलानिरूपिणी समीक्षा में रस, अलङ्कार आदि अङ्गों का विवेचन अनुपादेय मानते हैं। उनके अनुसार अङ्गों का विश्लेषण वैज्ञानिक समीक्षा में तो सहायक है, पर कला निरूपिणी समीक्षा में उसका कोई मूल्य नहीं । क्रोचे के इस सिद्धान्त का खण्डन करते हुए आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने कहा है कि 'इस सम्बन्ध में मेरा वक्तव्य यह है कि वैज्ञानिक या विचारात्मक समीक्षा ही कलानिरूपिणी समीक्षा है । उसी का नाम समीक्षा है' । वस्तुतः तर्क या शास्त्र से `भिन्न समीक्षा सम्भव ही नहीं है । शास्त्र, या तर्क का काव्यार्थ - भावन में कोई उपयोग नहीं, पर समीक्षा में वे उपयोगी ही नहीं, अनिवार्य हैं । समीक्षा पूर्णता में नहीं होती, पूर्ण की खण्ड-कल्पना कर लेने पर ही होती है । पूर्ण या अखण्ड अनिर्वचनीय होता है | अतः समीक्षक के लिए काव्य की सम्पूर्ण अभिव्यञ्जना को भी खण्डों में कल्पित कर लेना आवश्यक हो जाता है । शुक्ल जी के द्वारा की गई कोचे की समीक्षा विचारणीय है । शुक्ल जी ने क्रोचे की इस मान्यता से, कि काव्य का अर्थ एक और अखण्ड होता है, उसमें अलङ्कार और अलङ्कार्य आदि अङ्गों का विभाजन नहीं हो सकता, असहमति प्रकट करते हुए कहा कि अलङ्कार और अलङ्कार्य का भेद मिट नहीं सकता । उनकी मान्यता है कि व्यञ्जना की तरह अलङ्कार में भी एक प्रस्तुत अर्थ रहता है और दूसरा अप्रस्तुत । इस प्रस्तुत अर्थ को सामने रखे बिना कवि की उक्ति की समीचीनता की परीक्षा नहीं की जा सकती और न उसकी रमणीयता के स्थल ही सूचित किये जा सकते हैं । शुक्ल जी की यह मान्यता अंशतः ही प्रामाणिक मानी जा सकती है । औपम्यगर्भ अलङ्कार में एक अर्थ प्रस्तुत और दूसरा अप्रस्तुत रहता है । शुक्ल जी इस दृष्टि से दोनों का अनिवार्य भेद मानेंगे कि प्रस्तुत अर्थ के उपस्कार की दृष्टि से ही अन्य अप्रस्तुत अर्थ की योजना का औचित्य माना जाता है । अभिव्यञ्जनावादी १. सत्त्वोद्र कादखण्ड स्वप्रकाशानन्द - चिन्मयः । वेद्यान्तरस्पर्शशून्यो ब्रह्मास्वादसहोदरः ।। लोकोत्तरचमत्कारप्राणः कैश्चित् प्रमातृभिः । स्वाकारवदभिन्नत्वेनायमास्वाद्यते रसः ॥ - विश्वनाथ, साहित्य द० ३, २ २. रामचन्द्र शुक्ल, चिन्तामणि, भाग २ पृ० १६१ ३. वही
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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