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________________ २४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण फिर भी काव्य की व्युत्पत्ति के लिए — उसके स्वरूप के विश्लेषण के लिए— अलङ्कार और अलङ्कार्य को अलग-अलग कल्पित कर उनका विवेचन किया जाता है । अलङ्कार - अलङ्कार्य की तात्त्विक अभिन्नता मान लेने पर भी काव्य की व्युत्पत्ति के लिए दोनों की पार्थक्य - कल्पना की आवश्यकता बताने के लिए कुन्तक ने एक दृष्टान्त दिया है कि वैयाकरण वाक्य में पद, वर्ण आदि की अलग-अलग सत्ता नहीं मानते, फिर भी व्याकरण-ग्रन्थों में पद के अन्तर्गत प्रकृति - प्रत्यय का तथा वाक्य के अन्तर्गत पदों का पृथक-पृथक विवेचन किया जाता है । अतः, निष्कर्ष रूप में कुन्तक की स्थापना यह है कि अलङ्कार सहित सम्पूर्ण काही काव्यत्व है । अलङ्कृत वाक्य ही काव्य होता है, न कि काव्य में अलङ्कार का योग रहता है । स्पष्ट है कि क्रोचे ने अभिव्यञ्जनावाद में जो यह सिद्धान्त स्थापित किया है कि कला सहजानुभूति है और सहजानुभूति से अभिन्न होने के कारण अभिव्यञ्जना अखण्ड है, जिसका अलङ्कार, रीति आदि में विभाजन सम्भव नहीं, उस सिद्धान्त की स्थापना कुन्तक के द्वारा भारतीय अलङ्कार शास्त्र में बहुत पहले हो चुकी थी । कुन्तक ने भी काव्य को कवि की अनुभूति की सम्पूर्ण, निरवयव व्यञ्जना माना है । कुन्तक इस विचार को और आगे तक ले गये थे, जहाँ तक क्रोचे नहीं पहुँच पाये । क्रोचे का कथन है कि अलङ्कार - सिद्धान्त या रीति-सिद्धान्त अभिव्यञ्जना के अनेक वर्गों में अवैध विभाजन का परिणाम है । वस्तुतः अभिव्यञ्जना अखण्ड है । उसके अलग-अलग अङ्गों की कल्पना नहीं की जा सकती । क्रोचे का यह मत काव्य के भावक मात्र को दृष्टि में रखकर विचार करने से अवश्य ही निर्भ्रान्त है । सहृदय को काव्य का भावन उसकी पूर्णता में ही होता है । रसवादी आचार्यों ने काव्यानन्द की अनुभूति को वेद्यान्तर के स्पर्श से शून्य, अखण्ड, स्वप्रकाश्य और ब्रह्मानन्द १. अलंकृतिरलं कार्यमपोद्धृत्य विवेच्यते । तदुपायतया तत्त्वं सालंकारस्य काव्यता ॥ — कुन्तक, वक्रोक्ति जी० १, ६ २. ... तस्मादेवंविधो विवेकः काव्यव्युत्पत्युपायतां प्रतिपद्यते । दृश्यते च समुदायान्तःपातिनामसत्यभूतानामपि व्युत्पत्ति-निमित्तमयोद्धृत्य विवेचनम् । यथा पदान्तर्भू तयोः प्रकृतिप्रत्ययोः वाक्यान्तभूतानां पदानाञ्चेति । वही, वृत्ति पृ० १६ वर्ण, पद, वाक्य आदि की अभिन्नता के लिए द्रष्टव्यपदे न वर्णा विद्यन्ते वर्णेष्ववयवा न च । वाक्यात्पदानामत्यन्तं प्रविवेको न कश्चन ॥ — वैयाकरणभूषणसार, कारिका सं० ६८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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