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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
कारण का जन्म उसका छठा रूप है।' इन रूपों पर समग्रता से विचार करने से सबमें मूल रूप से प्रसिद्ध हेतु का व्यतिरेक दीख पड़ता है। अतः, कारण के अभाव में कार्योत्पत्ति को विभावना का लक्षण मानकर उसके अवान्तर-भेदों की कल्पना की जा सकती है ।
पण्डितराज जगन्नाथ ने कारण के व्यतिरेक के होने पर भी कार्योत्पत्ति का वर्णन विभावना का लक्षण माना है। भामह, उद्भट आदि के विभावनालक्षण की ओर सङ्केत करते हुए पण्डितराज ने कहा है कि उन्होंने क्रिया के प्रतिषेध के साथ फलोत्पत्ति को जो विभावना का लक्षण कहा है, उसमें क्रियाप्रतिषेध से तात्पर्य कारण (प्रसिद्ध कारण) के प्रतिषेध का है ।२ परवर्ती आचार्यों ने कारण-व्यतिरेक से कार्योत्पत्ति का वर्णन ही विभावना का लक्षण माना है।
निष्कर्ष यह कि प्रसिद्ध कारण के विना कार्य की उत्पत्ति के वर्णन में विभावना अलङ्कार मानने में प्रायः सभी आचार्य एक मत रहे हैं। इस परिभाषा के आधार पर विभावना के निम्नलिखित रूप कल्पित हुए हैं
(क) कारण के विना कार्योत्पत्ति-वर्णन, (ख) असमग्र कारण से कार्योत्पत्ति-वर्णन, (ग) कार्योत्पत्ति के बाधक के होने पर भी कार्योत्पत्ति-वर्णन, (घ) अकारण से कार्योत्पत्ति-वर्णन, (ङ) विरुद्ध कारण से कार्योत्पत्ति-वर्णन, (च) कार्य से कारणोत्पत्ति-वर्णन तथा (छ) वस्तुविशेष के धर्म को अन्य वस्तु का भी धर्म कहा जाना (रुद्रट)।
इस तरह प्रसिद्ध कारण के विना भी वैसे धर्म वाले अन्य कारण
से कार्योत्पत्ति का वर्णन । 'कुवलयानन्द' में निरूपित प्रथम छह विभावना-रूपों को हिन्दी के भी अनेक आचार्यों ने स्वीकार किया है।
१. द्रष्टव्यं-अप्पय्यदीक्षित, कुवलयानन्द, ७७-८२ २. कारणव्यतिरेकसामानाधिकरण्येन प्रतिपाद्यमाना कार्योत्पत्तिविभावना। यदुक्तम् । क्रियायाः प्रतिषेधे...."। क्रियाशब्देनात्र कारण विवक्षितम् ।
-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ०६८५