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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने रस-भाव आदि को भी अलङ्कार की सीमा में समेट लिया। अलङ्कारविषयक इस दृष्टि-भेद के कारण अलङ्कारों के त्याग-ग्रहण का क्रम चलता रहा । इसीलिए, किसी एक आचार्य ने सवा सौ से अधिक अलङ्कार स्वीकार नहीं किये; पर सभी कल्पित अलङ्कारों की संख्या प्रायः दो सौ तक चली गयी। अलङ्कारों के वर्गीकरण के लिए स्वीकार्य अलङ्कारों का निर्धारण होना चाहिए और तब वर्गीकरण के ऐसे आधार का निर्णय होना चाहिए, जिसमें सभी स्वीकृत अलङ्कारों का वर्ग-विभाजन सम्भव हो सके।
अलङ्कारों का विभाजन कई दृष्टियों से सम्भव है। प्रस्तुत अध्याय में हम संस्कृत एवं हिन्दी-अलङ्कार-शास्त्र के आचार्यों के अलङ्कार-वर्गीकरण की परीक्षा कर सभी स्वीकार्य अलङ्कारों के वर्गीकरण का प्रयास करेंगे। ____ आश्रय के आधार पर अलङ्कारों के वर्गीकरण की बात आचार्यों के मन में सबसे पहले आयी। आचार्य भरत के यमक-लक्षण में-शब्दाभ्यास मेंशब्दालङ्कारत्व की धारणा निहित थी। भामह, दण्डी आदि ने शब्द और अर्थ के अलङ्कारों का पृथक्-पृथक् विवेचन कर दोनों के स्वतन्त्र वर्ग स्पष्ट कर दिये । कुछ आचार्यों ने शब्दालङ्कार और अर्थालङ्कार के साथ उभयालङ्कार की भी कल्पना की। उभयालङ्कार को शब्दार्थालङ्कार भी कहा गया है । कुछ आचार्यों ने मिश्रालङ्कार की भी चर्चा की है। उभयालङ्कार और मिश्रालङ्कार की धारणा सर्वसम्मत नहीं है । हाँ, अनेक अलङ्कारों के, सङ्कर
और संसृष्टि रूप में-अङ्गाङ्गिभाव तथा परस्पर स्वतन्त्र भाव से-एकत्र सद्भाव की कल्पना सर्वमान्य हुई है। सङ्कर और संसृष्टि की गणना अलङ्कार के रूप में होती रही है; पर वस्तुतः वे अलङ्कार नहीं, अनेक अलङ्कारों की एक आश्रय में स्थिति की विभिन्न प्रक्रिया-मात्र हैं। इन्हें सङ्कीर्ण भी कहा जाता है। सङ्कीर्ण या संसृष्टि-सङ्कर में अलङ्कारों का वर्गीकरण न तो सम्भव है और न आवश्यक ही। एक आश्रय में कोई भी दो या उससे अधिक अलङ्कार परस्पर निरपेक्ष या परस्पर सापेक्ष रूप में रह सकते हैं। अतः शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार, उभयालङ्कार तथा मिश्रालङ्कार-वर्गों में अलङ्कारविभाग परीक्षणीय है। ___संस्कृत के प्रामाणिक आलङ्कारिकों ने शब्द और अर्थ के आधार पर ही दो वर्गों में काव्यालङ्कारों का विभाजन किया है। भोज और अग्निपुराणकार ने उभयालङ्कार की कल्पना की तो विद्यानाथ ने शब्दालङ्कार एवं अर्थालङ्कार के साथ मिश्रालङ्कार-वर्ग मान लिया। भोज और