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________________ अलङ्कारों का वर्गीकरण [ ३५९ सम्बन्ध में दो मत अवश्य रहे हैं। उभयालङ्कार की सत्ता मानने के प्रश्न पर भी आचार्यों में मतैक्य नहीं। अलङ्कारों के एकत्र सद्भाव के संसृष्टि और सङ्कर, दो ही रूम हैं। अतः, उनके वर्गीकरण में भी कोई समस्या नहीं। समस्या है केवल अर्थालङ्कारों के वर्गीकरण की। संस्कृत तथा हिन्दी के अनेक सशक्त आलङ्कारिकों ने अलङ्कारों के वर्गीकरण का प्रयास किया है, फिर भी वह समस्या पूर्णतः सुलझ नहीं पायी। इसका कारण स्पष्ट है। रुद्रट, रुय्यक-जैसे अलङ्कार-शास्त्र के उद्भट व्याख्याताओं की शक्ति में तो सन्देह नहीं किया जा सकता; पर अलङ्कार-वर्गीकरण में उनकी सीमा भी स्पष्ट है। उन आचार्यों ने अपने स्वीकृत अलङ्कारों का ही वर्गीकरण प्रस्तुत किया है, जो स्वाभाविक ही है। आज केवल वे ही अलङ्कार स्वीकृत नहीं हैं, जो उन आचार्यों द्वारा निरूपित थे। परवर्ती आचार्यों के द्वारा कल्पित कुछ नवीन अलङ्कार भी स्वीकृत हैं। अतः, आधुनिक पाठकों को उन नवीन अवर्गीकृत अलङ्कारों के वर्गीकरण में कठिनाई हो सकती है। पिछले अध्याय में हम देख चुके हैं कि अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों के दृष्टि-भेद से अलङ्कार की संख्या में बहुत भेद रहा है। केवल संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में ही लगभग दो सौ अलङ्कारों की कल्पना की गयी। हिन्दी में भी अठारह-उन्नीस नवीन अलङ्कारों की कल्पना की गयी। ये सभी अलङ्कार स्वीकार्य ही हों, यह बात नहीं। बीच-बीच में अलङ्कारों की संख्या के नियमन-संयमन की भी चेष्टा होती रही। वामन, कुन्तक आदि के प्रयास इस दृष्टि से विचारणीय हैं। यों तो वाग्विकल्प के अनन्त भेदों के आधार पर अलङ्कार के अनन्त भेदों की सम्भावना आनन्दवर्धन के द्वारा, उक्ति-भेद की अनन्तता के आधार पर अलङ्कारों की अनन्तता की सम्भावना दण्डी के द्वारा और हृदयावर्जक या अलङ कृत अर्थ की व्यापकता के आधार पर अलङ्कारों की व्यापकता रुद्रट के द्वारा स्वीकृत है; पर असंख्य अलङ्कार-भेदों को प्रमुख अलङ्कार-रूपों में परिमित और परिभाषित करना अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से उपयोगी है। अनन्त उक्ति-भेद में अनन्त अलङ्कार का सद्भाव मान लेने-मात्र से अलङ्कार की स्पष्ट धारणा नहीं बन सकती। अलङ्कार-विषयक संख्या-भेद का प्रमुख कारण. यह है कि कुछ आचार्यों ने अलङ्कार और अलङ्कार्य का स्पष्ट भेद स्वीकार किया, तो अन्य आचार्यों में वह भेद उपेक्षित हो गया। कुछ आचार्यों ने केवल साधर्म्यमूलक अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की, तो अन्य आचार्यों ने अन्य चमत्कार-जनक उक्तियों को भी अलङ्कार माना। कुछ अलङ्कारवादी आचार्यों
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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