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चतुर्थ अध्याय
अलङ्कारों का वर्गीकरण
काव्यालङ्कारों के विकास के साथ उनके वर्गीकरण की आवश्यकता अनुभूत हुई । भरत के चार अलङ्कारों ने शताधिक अलङ्कारों की कल्पना का द्वार खोला । लक्षण, गुण आदि काव्य-तत्त्वों के योग से नवीन-नवीन अलङ्कार आविर्भूत होने लगे । उक्तियों में थोड़े-थोड़े भेद के आधार पर समान अलङ्कार से अनेक स्वतन्त्र अलङ्कारों की कल्पना की जाने लगी। एक उपमा शैलूषी ने ही कितने रूप धारण किये ! एक अलङ्कार के सादृश्य विपर्ययात्मक रूप के आधार पर दूसरे अलङ्कार का उद्भावन हुआ । इस प्रकार अलङ्कार के एक संयोजक तत्त्व से अनेक अलङ्कार बने और वैपरीत्य के आधार पर अलङ्कार के नये संयोजकों की भी कल्पना की गयी । साधर्म्य के साथ वैधर्म्य भी अलङ्कार का विधायक बना । शृङ्खला आदि नवीन तत्त्वों के आधार पर भी अनेक अलङ्कारों की कल्पना की गयी । इसलिए, काव्य के अलङ्कारों का विभिन्न वर्गों में विभाजन आवश्यक जान पड़ा । अलङ्कारों के आश्रयभूत शब्द और अर्थ के आधार पर अलङ्कारों के दो स्थूल विभाग तो अलङ्कार-धारणा के आरम्भिक काल से ही स्पष्ट हो चुके थे; पर अनेक नवीन अलङ्कारों की स्वीकृति के साथ अर्थालङ्कार के वर्ग-विभाजन की भी आवश्यकता हुई । कुछ आचार्यों ने शब्दालङ्कार तथा अर्थालङ्कार के अतिरिक्त उभयालङ्कार की भी कल्पना की है । एकाधिक अलङ्कारों के एकत्र सद्भाव में मिश्रालङ्कार भी स्वीकृत है । शब्दालङ्कारों के वर्ग-विभाजन की न तो आवश्कता हुई और न उसमें अधिक कठिनाई है । कारण है, उनकी संख्या की परिमिति । हाँ, वक्रोक्ति को शब्दालङ्कार माना जाय या अर्थालङ्कार, इस