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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५४७ के द्विपद, त्रिपद आदि भेद माने गये हैं। भोज ने शब्द, अर्थ तथा शब्दार्थ के अन्वय के आधार पर तीन भेद कर पुनः तीनों के दो-दो भेद किये हैं। उनके अनुसार क्रम के निम्नलिखित छह भेद हैं-(१) पद से शब्दपरिपाटी, (२) वाक्य से शब्द-परिपाटी, (३) काल से अर्थ-परिपाटी, (४) देश से अर्थ-परिपाटी, (५) शब्दप्रधाना शब्दार्थोभय-परिपाटी तथा (६) अर्थप्रधाना शब्दार्थोभय-परिपाटी।' पर्याय आचार्य रुद्रट ने सर्वप्रथम पर्याय अलङ्कार की कल्पना की। उनके अनुसार पर्याय अलङ्कार का एक रूप वह है, जिसमें विवक्षित वस्तु के प्रतिपादन में समर्थ, किन्तु उसके असदृश तथा उसके साथ उत्पाद्य या उत्पादक सम्बन्ध नहीं रखने वाले पदार्थ का कथन होता है । २ अभिप्राय यह कि जहाँ विवक्षित वस्तु का सीधा कथन न हो; पर उसका बोध कराने के लिए किसी अन्य वस्तु का, जो न तो उस विवक्षित अर्थ के सदृश हो और न उसका उत्पाद्य या उत्पादक हो, कथन किया जाय, वहाँ पर्याय का एक रूप होता है। सदृश से सदृश का बोध समासोक्ति और अन्योक्ति में होता है। इसमें असदृश वस्तु से विवक्षित अर्थ का बोध कराया जाता है। स्पष्ट है कि पर्याय का यह प्रकार पूर्ववर्ती आचार्यों की पर्यायोक्ति-अलङ्कार धारणा पर आधृत है। भामह, दण्डी, उद्भट आदि आचार्य पर्यायोक्ति के स्वरूप का निरूपण कर चुके थे। रुद्रट ने उसे पर्याय कहा और पर्याय के एक स्वतन्त्र रूप की भी उद्भावना उन्होंने की। पीछे चलकर पर्याय के ये दो रूप अलग-अलग अलङ्कारों के रूप में स्वीकृत हुए। पर्याय के जिस स्वरूप की उद्भावना रुद्रट ने की थी, वही पर्याय अभिधान से पीछे के आचार्यों को मान्य हुआ। पूर्वाचार्यों की पर्यायोक्ति, जिसे रुद्रट ने पर्याय का एक प्रकार कहा था, पर्याय से स्वतन्त्र पर्यायोक्ति संज्ञा से ही स्वीकृत हुई। पर्याय के दूसरे भेद की परिभाषा में रुद्रट ने कहा है कि जहाँ अनेक आधारों में एक वस्तु का अथवा एक आधार में अनेक वस्तुओं का क्रम से होना वर्णित हो, वहाँ पर्याय का दूसरा प्रकार होता १. द्रष्टव्य, भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, पृ० ४५३-५७ २. वस्तु विवक्षितवस्तुप्रतिपादनशक्तमसदृशं तस्य । यदजनकमजन्यं वा तत्कथन यत्स पर्यायः ॥ -बट, काव्यालं., ७.४२
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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