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अलङ्कार - धारणा : विकास और विश्लेषण
है कि एक निश्चित क्रम से कथित कारक- पदों या क्रिया-पदों का उसी क्रम कारक - पदों या क्रिया-पदों के साथ अन्वय दिखाना यथासंख्य अलङ्कार है ।'
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अप्पय्य दीक्षित ने आचार्य मम्मट का यथासंख्य लक्षण 'कुवलयानन्द' में उद्धृत कर दिया है । जगन्नाथ भी निर्देश -क्रम से अर्थों का सम्बन्ध यथासंख्य का लक्षण मानते हैं ।
इस विवेचन से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कुन्तक आदि के खण्डन के प्रयास के उपरान्त भी काव्य - शास्त्र में यथासंख्य अलङ्कार के रूप में स्वीकृत रहा है ।
प्रस्तुत अलङ्कार के स्वरूप के सम्बन्ध में सभी आचार्यों की मूल धारणा समान है । इसमें एक बार कुछ अर्थों का कथन होता है और उस कथन अर्थों का जो क्रम रहता है, उसी क्रम से पीछे कहे जाने वाले अर्थों के साथ उन अर्थों का अन्वय होता है । उदाहरणार्थ, पूर्व कथित अर्थों में से प्रथम का पीछे कहे जाने वाले अर्थों प्रथम के साथ, द्वितीय का द्वितीय के साथ और तृतीय का तृतीय के साथ अन्वय होगा । जिस अर्थ का अन्वय दिखाना हो तथा जिसके साथ अन्वय अभीष्ट हो, दोनों का समान क्रम ही क्रम या यथासंख्य का रूप-विधान करता है । पूर्व निर्दिष्ट तथा पश्चात् निर्दिष्ट पदार्थों में उपमानोपमेय-भाव, विशेषणविशेष्य-भाव आदि सम्बन्ध भी हो सकते हैं; किन्तु उन्हें यथासंख्य का आवश्यक लक्षण नहीं माना जा सकता । ऐसा करना उसके क्षेत्र को सीमित करना होगा ।
यथासंख्य के भेद
समास तथा असमास से पदों का समान क्रम से अन्वय दिखाने के आधार पर यथासंख्य के आर्थ और शाब्द भेद किये गये हैं । कारक - पदों तथा क्रियापदों के क्रमिक अन्वय के आधार पर भी दो भेद किये जा सकते हैं । दो या तीन निर्दिष्ट पदों का क्रमश: दो या तीन पदों के साथ अन्वय दिखाये जाने के आधार पर - अन्वित होने वाले पदार्थों की संख्या के आधार पर - भी यथासंख्य
१. यथासंख्य द्विधार्थाश्चेत् क्रमादेकैकमन्विता ।
— जयदेव, चन्द्रालोक, ५, ६२ ( द्विधार्थाः क्रियाकारकरूपाद्विविधा अर्थाः । ) वही रमा टी० पृ० ६७
२. उपदेशक्रमेणार्थानां सम्बन्धो यथासंख्यम् । - जगन्नाथ, रसगङ्गाधर,
पृ० ७५६