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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ५१७ उपमान और उपमेय का संशय अर्थात् उभयकोटिक अनिश्चयात्मक ज्ञान सन्देह अलङ्कार का लक्षण माना है।' रुद्रट ने एक वस्तु में सादृश्य के कारण प्रमाता को अनेक का सन्देह होना अनिश्चय-रूप संशय का लक्षण माना। इसके साथ ही उन्होंने इस अलङ्कार के निश्चयगर्भ और निश्चयान्त रूप भी स्वीकार किये । निश्चयगर्भ में उपमेय में असम्भव वस्तु का सद्भाव या सम्भव वस्तु का अभाव तथा उपमान में भी इसी तरह सम्भव का अभाव या असम्भव का सद्भाव बताया जाता है। जहाँ अन्त में वस्तु का निश्चय हो जाय, वहाँ निश्चयान्त संशय होता है। अनिश्चय रूप संशय ही सन्देह का शुद्ध रूप है; जिसमें चित्त दो वस्तु की प्रतीति की दोलाचल स्थिति में रहता है । निश्चयगर्भ में चित्तवृत्ति शुद्ध संशय की स्थिति से वितर्क की स्थिति में आ जाती है तथा निश्चयान्त में वह वितर्क के सहारे निश्चयात्मक ज्ञान की स्थिति में पहुँच जाती है। निश्चयगर्भ और निश्चयान्त सन्देह को संशय अलङ्कार इसलिए माना जाता है कि इन दोनों में चित्त में संशय की उत्पत्ति के बाद ही वितर्क तथा उसके सहारे निश्चयास्मक ज्ञान की स्थिति का वर्णन होता है। भामह के समय से ही ससन्देह में वितर्क की स्थिति को समाविष्ट किया जाता रहा है। एक उपमेय में दो की ( उपमान तथा उपमेय की ) अनिश्चयात्मक प्रतीति होने पर दोनों में भेद'निरूपण वितर्क का कार्य है। सन्देह अनिश्चयात्मक ज्ञान की एक विशेष स्थिति है तो वितर्क सन्दिग्ध वस्तु में तत्त्व-ज्ञान का साधन । अलङ्कारशास्त्र में दोनों को सन्देह अलङ्कार मान लिया गया है । कुन्तक के अनुसार जहाँ कवि-प्रतिभा से सम्भावित (उत्प्रेक्षित) वस्तु का स्वरूप अन्य की भी उत्प्रेक्षा के सम्भव होने के कारण सन्देह की स्थिति को प्राप्त करता है, वहाँ सन्देह अलङ्कार माना जाता है। उन्होंने इसका उद्देश्य विशेष सौन्दर्य का आधान माना है। मम्मट, रुय्यक, भोज, विश्वनाथ, शोभाकर, जयदेव, अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ आदि सभी प्रमुख आलङ्कारिकों १. उपमानोपमेययोरतिशयार्थ यः क्रियते संशयः स सन्देहः ।। -वामन, काव्यालं. सू० वृत्ति पृ० २४४ २. द्रष्टव्य, रुद्रट, काव्यालं० ८, ५६-६५ ३. यस्मिन्नुत्प्रेक्षितं रूपं सन्देहमेति वस्तुनः । उत्प्रेक्षान्तरसद्भावात् विच्छित्यै (सन्देहो मतः) ॥ -कुन्तक, वक्रोक्तिजी० ३,४२
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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