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________________ २९४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कुछ के स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन करे। इसका कारण चिन्तन की अपरिपक्वता या आत्मविश्वास का अभाव ही हो सकता है। 'अलङ्कार-कौस्तुभ' में निम्नलिखित पचीस अलङ्कारों के स्वतन्त्र अस्तित्व का या अलङ्कारत्व का खण्डन किया गया है:-अनुगुण, अल्प, असम्भव, आनुकूल्य, उन्मीलित, उल्लेख, निमीलित, निश्चय, परिकराङ्क र, परिणाम, पूर्वरूप, प्रस्तुताङ्कर, प्रहर्षण, प्रौढ़ोक्ति, मिथ्याध्यवसिति, युक्ति, ललित, लेश, विकस्वर, विचित्र, वितर्क, विशेष, विषाद, सम्भावना और हेतु ।। 'अलङ्कार-प्रदीप' में सूत्र-शैली में 'कुवलयानन्द' के मुद्रा को छोड़ शेष सभी अलङ्कारों का निरूपण किया गया है। इसके अतिरिक्त विश्वनाथ के 'साहित्य-दर्पण' से अनुकूल,जगन्नाथ के 'रसगङ्गाधर' से तिरस्कार और शोभाकर के 'अलङ्कार-रत्नाकर' से निश्चय अलङ्कार गृहीत हैं। संस्कृत-आचार्यों की रचनाओं के साथ विश्वेश्वर ने हिन्दी रीति-आचार्यों की रचनाओं का भी उपयोग किया है। स्पष्टतः, विश्वेश्वर पण्डित की रचनाओं में अलङ्कार-विषयक कोई मौलिक उद्भावना नहीं हुई है। अच्युतराय अच्युतराय ने संस्कृत अलङ्कार-शास्त्र का मन्थन कर साहित्य का सार प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। अच्युत का काल ( अठारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध तथा उन्नीसवीं का पूर्वार्ध ) पूर्वाचार्यों के साहित्य-सिद्धान्त-सागर के मन्थन का ही काल था, स्वतन्त्र कल्पना का काल नहीं। 'साहित्यसार' के कौस्तुभरत्न एवं कामधेनुरत्न में क्रमशः अर्थालङ्कारों एवं शब्दालङ्कारों का विवेचन है । शब्द के छेक, श्र ति तथा लाट अनुप्रास एवं यमक का विवेचन हुआ है । अर्थ के एक सौ अलङ्कारों का निरूपण किया गया है । अलङ्कारों के लक्षण अधिकतर 'कुवलयानन्द' के अधार पर दिये गये हैं। 'साहित्य-सार' में किसी नवीन अलङ्कार की उद्भावना नहीं की गयी है। हाँ, अलङ्कारों के अधिकाधिक भेदों की स्थापना का प्रयास अवश्य किया गया है। भेदीकरण में भी प्राचीन आचार्यों की मान्यताओं का ही सहारा लिया गया है।
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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