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अलङ्कार-धारणा का विकास . [२९५ संस्कृत में अलङ्कार-निरूपण करने वाले आचार्यों की एक सुदीर्घ परम्परा रही है। अनेक आचार्यों ने पूर्वाचार्यों के द्वारा स्वीकृत अलङ्कारों का लक्षणनिरूपण किया है। ऐसे गौण आचार्यों की एक लम्बी सूची डॉ० डे ने दी है।' जिन आलङ्कारिकों का अलङ्कार-धारणा के विकास में मौलिक योगदान नहीं, उनकी कृतियों की समीक्षा प्रस्तुत सन्दर्भ में अप्रासङ्गिक समझ कर छोड़ दी गयी है।
निष्कर्ष
संस्कृत-अलङ्कार-शास्त्र में काव्यालङ्कार-धारणा के विकास-क्रम के इस अध्ययन से निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त होते हैं :
आचार्य भरत के उपरान्त काव्य के अलङ्कारों की संख्या में क्रमिक वृद्धि होती गयी है। भरत के चार अलङ्कारों की जगह परवर्ती आचार्यों की कृतियों में शताधिक अलङ्कारों की कल्पना कर ली गयी है। ___ यद्यपि अधिकांश परवर्ती आचार्यों में अलङ्कारों की संख्या के प्रसार की प्रवृत्ति ही अधिकतर पायी जाती है; पर कुछ आचार्यों ने समय-समय पर अलङ्कारों की संख्या के अनावश्यक प्रसार का विरोध कर संख्या को परिमित करने का भी आयास किया है। वामन, कुन्तक आदि आचार्यों का प्रयास इस दृष्टि से द्रष्टव्य है।
अलङ्कारों की संख्या की प्रसृति एवं परिमिति का कारण अलङ्कारों के सम्बन्ध में आचार्यों के दृष्टिकोण में मूलभूत अन्तर रहा है। कुन्तक ने अलङ्कार एवं अलङ्कार्य के बीच स्पष्ट विभाजक-रेखा खींच कर पूर्ववर्ती आचार्यों के कुछ अलङ्कारों को अलङ्कार्य सिद्ध कर अलङ्कार के क्षेत्र से बहिष्कृत कर दिया । वामन आदि आचार्यों ने केवल औपम्यगर्भ अलङ्कारों की ही सत्ता स्वीकार कर अन्य अलङ्कारों का अलङ्कारत्व अस्वीकार कर दिया है। केवल औपम्यमूलक अलङ्कारों का सद्भाव मानना युक्तिसङ्गत नहीं। विरोधमूलक, क्रममूलक आदि अलङ्कारों का अलङ्कारत्व भी उपेक्षणीय नहीं। अलङ्कार और अलङ्कार्य के बीच व्यावहारिक दृष्टि से विभाजक-रेखा अवश्य होनी चाहिए। अनेक आचार्यों ने काव्य के वर्ण्य को भी अलङ्कार
१. द्रष्टव्य-डॉ० डे, Hist. of skt. Poetics खण्ड १