________________
३६६ ]
अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
रसवत् आदि के स्वरूप के सम्बन्ध में अलङ्कारवादी एवं रसवादी आचार्यों का दृष्टिभेद स्वाभाविक था। रस आदि को अलङ्कार के क्षेत्र में परिमित करने का आग्रह रखने वाले आचार्यों ने रसपेशलता को रसवत् अलङ्कार मान लिया; किन्तु जो आचार्य काव्य में रस का अलङ्कार से स्वतन्त्र तथा उससे अधिक महत्त्वपूर्ण स्थान मानने के पक्षपाती थे, उन्होंने केवल रस की अप्रधानता के -स्थल में रसवत् अलङ्कार का अस्तित्व स्वीकार किया।' भावाश्रित प्रेय, ऊर्जस्वी आदि की भी यही स्थिति है । फलतः, रसवदादि अलङ्कारों के स्वरूप का निरूपण रसवादी तथा अलङ्कारवादी आचार्यों के द्वारा अलग-अलग रूपों में किया गया। __अलङ्कार के सम्बन्ध में आचार्यों की मूल धारणा के भेद के कारण भी अलङ्कार-विशेष का स्वरूप-परिवर्तन हुआ है। वामन आदि आचार्यों ने इस मूल धारणा के साथ अलङ्कार-विशेष का लक्षण-निरूपण किया कि प्रत्येक अलङ्कार में उपमानोपमेय भाव किसी-न-किसी रूप में अवश्य रहना चाहिए। अतः, उन्होंने पूर्वाचार्यों के अनेक अलङ्कारों का अलङ्कारत्व तो अस्वीकार कर ही दिया, साथ ही कुछ अलङ्कारों के स्वरूप में उपमानोपमेय-सम्बन्ध को जोड़ कर उनके किञ्चित् नवीन रूप का प्रतिपादन किया। फलतः; परिवृत्ति, सहोक्ति आदि में भी, जिनमें अन्य आचार्यों ने क्रमशः किन्हीं दो वस्तुओं का विनिमय तथा सहभाव-वर्णन अपेक्षित माना था, वामन के अनुसार विनिमय तथा सहभाव वाली वस्तुओं के बीच कुछ प्रस्तुत-अप्रस्तुत के सम्बन्ध की कल्पना आवश्यक हो गयी। उपमानोपमेय-भाव के आग्रह के कारण ही उनकी विशेषोक्ति शोभाकर के अभेद तथा जगन्नाथ के रूपक के समान बन गयी है।
अलङ्कार-शास्त्र का इतिहास प्रमाणित करता है कि प्राचीन आचार्यो में सामान्य रूप से तत्त्व-निरूपण की प्रवृत्ति थी; पर पीछे चल कर विशेषीकरण की प्रवृत्ति बढ़ती गयी। फलतः, प्राचीन आचार्यों के द्वारा निरूपित एक अलङ्कार के व्यापक स्वरूप से पीछे चल कर अनेक अलङ्कार आविर्भूत हुए हैं। एक अलङ्कार के आधार पर अनेक अलङ्कारों की कल्पना के लिए उन दोनों के बीच किञ्चित् भेद की कल्पना तथा दोनों की सीमा के निर्धारण की १. भामह, उद्भट आदि ने शृङ्गारादि रसयुक्त वाक्य में रसवत् अलङ्कार
माना है; पर विश्वनाथ के अनुसार रस-भाव आदि के गौण हो जाने में रसवत्, प्रेय आदि अलङ्कार का अस्तित्व माना जाता है।-तुलनीयउद्भट,काव्यालं० सार सं० ४,२-४ तथा विश्वनाथ,साहित्यद० १०,१२४