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________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [४७१ परिणत हो जाता है।' रूपक में प्रकृत के केवल रूप पर अप्रकृत के रूप का समारोप होता है, पर परिणाम में रूप के साथ व्यवहार का भी समारोप हो जाता है । इसीलिए परिणाम को 'व्यवहारान्त आरोप' कहा गया है। और भी स्पष्ट करने के लिए कहें, तो 'अलङ्कार-सूत्र' के टीकाकार जयरथ के शब्दों में कह सकते हैं कि परिणाम में प्रकृत या उपमेय अप्रकृत या उपमान के व्यवहार से युक्त हो जाता है। परिणाम का जो लक्षण रुय्यक ने दिया है, उस लक्षण-सूत्र की व्याख्या के क्रम में टीकाकारों ने दो प्रकार की मान्यताएँ व्यक्त की हैं। कुछ टीकाकारों के अनुसार आरोप्यमाण या अप्रकृत ही प्रकृत के रूप में परिणत होकर प्रकृतार्थ में उपयोगी होता है । इस धारणा के विपरीत अन्य टीकाकारों ने यह मन्तव्य प्रकट किया है कि प्रकृत ही अप्रकृत के रूप में परिणत होकर अर्थात् अप्रकृत का व्यवहार लेकर प्रकृत कार्य में उपयोगी होता है। उक्त दोनों मता की पुष्टि रुय्यक के सूत्र की वृत्ति से हो जाती है। रुय्यक ने वृत्ति में कहा है कि परिणाम में आरोप्यमाण का प्रकृत-रूप में उपयोग होता है; अतः इसमें प्रकृत आरोप्यमाण के रूप में परिणत होता है।४ 'प्रकृतात्मतयारोप्यमाणस्योपयोग' इस वाक्यांश का सहारा लेकर यह मत व्यक्त किया गया है कि आरोप्यमाण या अप्रकृत ही प्रकृत के रूप में परिणत होकर प्रकृत-कार्य में उपयोगी होता है। पर, 'प्रकृतमारोप्यमाणरूपत्वेन परिणमति' इस वाक्य-खण्ड में स्पष्टतः कहा गया है कि प्रकृत ही अप्रकृत के रूप में परिणत होता है । प्रकृत का परिणाम मानने वाले इस वाक्यांश को प्रमाण के रूप में उद्धृत करते हैं। __ परवर्ती आचार्यों में विद्याधर, शोभाकर आदि ने प्रकृत की अप्रकृत के रूप में परिणति को परिणाम का लक्षण माना है, पर विश्वनाथ, विद्यानाथ, अप्पय्यदीक्षित तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने परिणाम में अप्रकृत का प्रकृत के रूप में परिणाम स्वीकार किया है। १. आरोग्यमाणं रूपके प्रकृतोपयोगित्वाभावात् प्रकृतोपरजकत्वेनैव केवलेनान्वयं भजते । परिणामे तु प्रकृतात्मतयारोप्यमाणस्योपयोग इति प्रकृतमारोप्यमाणरूपत्वेन परिणमति ।-रुय्यक, अलं० सर्व० पृ० ३८ २. अतो व्यवहारान्तमारोपः ."-अलं० सर्वस्व, संजीवनी-टीका पृ० ५८ ३. प्रकृतमप्रकृतव्यवहारविशिष्टतयावतिष्ठते । -अलं० सर्वस्व, विमशिनी-टीका पृ० ५१ ४. परिणामे तु प्रकृतात्मतयारोप्यमाणस्योपयोग इति प्रकृतमारोप्यमाणरूपत्वेन परिणमति ।-रुय्यक, अलं० सर्वस्व, पृ० ३८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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