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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ २११ उस पर अनुकम्पा की जाय या उसकी निन्दा की जाय वहीं प्रतीप अलङ्कार होता है । ' उपमेय का वैशिष्ट्य ख्यापन इस अलङ्कार में मम्मट को भी अभिमत है । वे इसके लिए उपमेय के सद्भाव में उपमान की व्यर्थता का प्रतिपादन तथा उपमान का तिरस्कार करने के लिए उपमेय के रूप में उसकी कल्पना प्रतीप का लक्षण मानते हैं । मम्मट की यह प्रतीप - धारणा आचार्य दण्डी के विपर्यासोमा के समान है । मम्मट के विशेष और तद्गुण अलङ्कार रुद्रट के एतत्संज्ञक अलङ्कारों से अभिन्न हैं । संसृष्टि और सङ्कर की धारणा प्राचीन है । भामह से लेकर रुद्रट तक एकाधिक अलङ्कारों के एकत्र सन्निवेश की दो प्रक्रियाओं - तिलतण्डुल न्याय से तथा नीरक्षीर न्याय से पर संसृष्टि तथा सङ्कर संज्ञा से सविस्तर विवेचन हो चुका था । मम्मट ने दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार की तथा उनके प्राचीन लक्षण को ही स्वीकार किया । स्पष्ट है कि उक्त अलङ्कारों के लक्षण-निरूपण में मम्मट पर भामह, उद्भट तथा रुद्रट की अलङ्कार-धारणा का प्रभूत प्रभाव पड़ा है । भामह और उद्भट की अलङ्कार-धारणा बहुत कुछ समान है । अतः मम्मट की धारणा पर 'पड़ने वाले प्रभाव को दृष्टि से उक्त दो आचार्यों की धारणा को एक सामान्य स्रोत माना जा सकता है । मम्मट को प्रभावित करने वाला दूसरा प्रबल स्रोत रुद्रट का 'काव्यालङ्कार' है । कुछ पूर्व प्रचलित अलङ्कारों को नाम्ना स्वीकार कर मम्मट ने कुछ नवीन रूप से उन्हें परिभाषित किया है । वे अलङ्कार हैं— (क) समुच्चय और ( ख ) व्याघात । इनकी स्वरूप कल्पना का स्रोत अन्वेष्टव्य है । समुच्चय समुच्चय की प्रकृति की कल्पना का आधार आचार्य दण्डी की समुच्चयोपमा की धारणा है । मम्मट ने रुद्रट की समुच्चय- परिभाषाओं को दृष्टिगत रखते हुए प्रस्तुत अलङ्कार को कुछ भिन्न रूप से परिभाषित किया है । वे रुद्रट के ‘सद्योग समुच्चय', 'असद्योग समुच्चय' तथा 'सदसद्योग समुच्चय' के पृथक्-पृथक् लक्षण को अस्वीकार कर एक ही व्यापक परिभाषा में उन्हें आबद्ध करना चाहते थे । इसीलिए उन्होंने यह कल्पना की कि जहाँ प्रस्तुत कार्य के एक साधक के रहने पर अन्य साधकों के सद्भाव की भी कल्पना की १. रुद्रट, काव्यालङ्कार, ८,७६
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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