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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
"किया। सहोक्ति भामह, उद्भट एवं रुद्रट आदि के मतानुसार तथा परिवृत्ति "उद्भट और रुद्रट के मतानुसार परिभाषित हैं। उद्भट के द्वारा कल्पित 'परिवृत्ति के तीनों भेद (न्यून से अधिक, अधिक से न्यून तथा सम वस्तु से “सम का विनिमय) मम्मट के द्वारा स्वीकृत हैं। मम्मट के भाविक अलङ्कार का स्वरूप भामह के भाविक प्रबन्ध-गुण तथा उद्भट के भाविक अलङ्कार के स्वरूप से अभिन्न है। हमने इस तथ्य पर विचार किया है कि भाविक को प्रबन्ध का गुण कहने पर भी भामह उसे वस्तुतः काव्य का अलङ्कार ही मानते थे। इसीलिए उन्होंने अलङ्कार के सन्दर्भ में उसका विवेचन किया है। पर्यायोक्त का लक्षण भामह, उद्भट और रुद्रट की मान्यता के अनुसार दिया गया है। रुद्रट ने पर्यायोक्त को पर्याय नाम से अभिहित किया था। मम्मट के 'उदात्त का स्वरूप उद्भट के उदात्त से अभिन्न है। भामह ने भी इस अलङ्कार के विषय में उद्भट के समान ही धारणा व्यक्त की थी। मम्मट का पर्याय अलङ्कार रुद्रट के पर्याय के द्वितीय प्रकार के समान है।' अनुमान, परिकर, 'परिसंख्या, कारणमाला, अन्योन्य तथा उत्तर के स्वरूप-विवेचन में मम्मट ने
आचार्य रुद्रट के मत का अनुगमन किया है। व्याजोक्ति की वामन-प्रदत्त परिभाषा को काव्यप्रकाशकार ने स्वीकार किया है । सूक्ष्म अलङ्कार के स्वरूप
के सम्बन्ध में आचार्य दण्डी की मान्यता को स्वीकार किया गया है । सार और 'असङ्गति का स्वरूप रुद्रट के मतानुसार निरूपित है। दण्डी के समाहित को "मम्मट ने समाधि नाम से स्वीकार किया है। भामह ने भी इसकी धारणा उदाहरण से व्यक्त की थी, पर उसकी परिभाषा नहीं दी थी। सम की कल्पना मम्मट ने रुद्रट के विषम के विपर्यय रूप में की है। मम्मट के विषम और अधिक का स्वरूप रुद्रट से गृहीत है। रुद्रट के अधिक के द्वितीय भेद को मम्मट ने स्वीकार किया है। दण्डी ने उसे आश्रयाधिक्यातिशयोक्ति 'नाम से अतिशयोक्ति का एक भेद माना था। मम्मट का प्रत्यनीक रुद्रट
के औपम्यमूलक प्रत्यनीक के समान है। मीलित, एकावली, स्मरण तथा 'भ्रान्तिमान के सम्बन्ध में मम्मट की मान्यता रुद्रट की मान्यता से अभिन्न है। प्रताप के स्वरूप के विषय में मम्मट ने रुद्रट की मूल धारणा को स्वीकार कर उसमें अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है। रुद्रट की धारणा थी कि उपमेय के वैशिष्ट्य-प्रतिपादन के लिए जहां उपमान के साथ उसकी समता के लिए १. तुलनीय-रुद्रट, काव्यालङ्कार ७,४४ तथा मम्मट, काव्यप्रकाश १०,
१८० पृ० २७३