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१६० ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण में अलङ्कारत्व माना जा सकता है; किन्तु ग्राम्योक्ति आदि स्वतः अलङ्कार कैसे मानी जा सकती है ? प्रहेलिका
प्रहेलिका की धारणा भी प्राचीन है। बौद्धिक चमत्कार दिखाने वाले इस अलङ्कार का उल्लेख भामह ने रामशर्मा नामक आचार्य का साक्ष्य देते हुए यमक-विवेचन के प्रसङ्ग में किया है। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में इसे 'यमकव्यपदेशिनी' कहा है।' भोज के पूर्ववर्ती आचार्य दण्डी ने ही क्रीडागोष्ठी के हास्य-विनोद में प्रयुक्त होने वाले इस अलङ्कार के सोलह भेदों का स्वतन्त्र अस्तित्व स्वीकार कर लिया था। भोज ने भी यमक आदि से पृथक् इसकी गणना की है। गूढ, प्रश्नोत्तर
प्राचीन आचार्यों की प्रहेलिका के स्वरूप के आधार पर ही इन दो स्वतन्त्र अलङ्कारों की कल्पना भोजराज ने की है। विदग्ध-गोष्ठी में अपनी बौद्धिक कला के प्रदर्शन से चमत्कार उत्पन्न करने की जो धारणा प्रहेलिका के सम्बन्ध में व्यक्त की जाती रही है, वह इन दोनों अलङ्कारों के मूल में भी है। गूढ 'उक्ति एवं प्रश्नोत्तर की उक्ति का वाकोवाक्य अलङ्कार के भेद के रूप में भी भोज ने विवेचन किया है। अतः गूढ एवं प्रश्नोत्तर पर पृथक् विचार आवश्यक भी नहीं था। प्रहेलिका के बौद्धिक-चमत्कार के अनेक भेदों की कल्पना की जा सकती है । रुद्रट ने कारकगूढ तथा क्रियागूढ प्रहेलिका-भेदों का उल्लेख किया था। उन्होंने उसके प्रश्नोत्तर भेद की भी कल्पना की थी। भोज के गूढ और प्रश्नोत्तर का स्वरूप रुद्रट के उक्त प्रहेलिका-भेदों के स्वरूप से भिन्न नहीं। इन्हें प्रहेलिकान्तर्गत मानना ही अधिक समीचीन जान पड़ता है। अध्य, श्रव्य, प्रेक्ष्य, अभिनेय
अध्येय, श्रव्य आदि को काव्य का अलङ्कार मानना युक्तिसङ्गत नहीं जान पड़ता। ये सामान्यतः काव्य के गुण हो सकते हैं, अलङ्कार नहीं। गुण भी पारिभाषिक अर्थ में नहीं, साधारण अर्थ में। अभिप्राय यह कि
१. भामह-काव्यालङ्कार, २,१६ २. रुद्रट-का यालङ्कार, ५,२४