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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १६१ कविता गद्य-काव्य आदि को पठनीय और श्रव्य होना चाहिए। उसमें ऐसी सरलता और सरसता हो कि वह पढ़ने या सुनने में अरुचिकारक नहीं हो। रूपक में अभिनेयता और दर्शनीयता रहे। भोज ने इन्हें अलङ्कार कैसे मान लिया, इसका उत्तर उनकी काव्य-तत्त्व-समीक्षा की पद्धति पर विचार करने से मिल जाता है। गुण-विवेचन के सन्दर्भ में हमने इस बात की ओर सङ्कत किया है कि सम्पूर्ण प्रबन्धगत-गुण की कल्पना का उनमें आग्रह था।' इसी आग्रह के कारण उन्होंने उक्त प्रबन्ध-गत अलङ्कारों की भी कल्पना कर ली है। अर्थालङ्कार जाति ___भोज की जाति प्राचीन आचार्यों की स्वभावोक्ति या जाति से अभिन्न है। जाति एवं स्व मावोक्ति एक ही अङ्कार की दो आख्याएं हैं। भोज ने वस्तु-स्वभाव के विविध सम्भावित रूपों के वर्णन के आधार पर प्रस्तुत अलङ्कार के अनेक भेदों की कल्पना कर ली है। हम देख चुके हैं कि वस्तु के नित्य तथा आगमापायी धर्मों के आधार पर स्वभाव-कथन के मुख्य दो भेदों की कल्पना पहले भी की जा चुकी थी। भोज ने भी जाति के सार्वकालिक एवं जायमान भेदों को स्वीकार किया है। मुग्धा बाला, नीच पात्र, पशु-पक्षी तथा बच्चे आदि के सहज रूप का वर्णन सार्वकालिक का तथा वेशभूषा, व्यापार आदि का वर्णन जायमान का उपभेद माना जायगा। कुन्तक के द्वारा जाति या स्वभावोक्ति के अलङ्कारत्व का खण्डन किये जाने पर भी उत्तरवर्ती आचार्यों ने उसकी गणना अलङ्कार के रूप में ही की है। हमने जाति-विषयक इन परिपन्थी मान्यताओं के औचित्य की परीक्षा उचित सन्दर्भ में की है। प्रस्तुत पसङ्ग में यह निर्देश-मात्र अभिप्र त है कि भोज की जाति-धारणा प्राचीन आलङ्कारिकों की तद्विषयक धारणा से भिन्न नहीं। विभावना विभावना अलङ्कार के लक्षण-निरूपण-क्रम में 'परस्वती कण्ठाभरण' में आचार्य दण्डी के 'काव्यादर्श' से विभावना-लक्षण-श्लोक अविकल रूप में उद्धृत कर दिया गया है ।२ भोज के द्वारा कल्पित उसके शुद्धा, चित्रा एवं १. द्रष्टव्य-लेखक का 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन । २. भोज-सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, २१ तुलनीय, दण्डी, काव्यादर्श २, १९९
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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