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________________ १९२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण विचित्रा उपभेद के नाम मात्र नवीन हैं। उसके स्वरूप की कल्पना का मूल rust के विविध विभावना - भेदों में ही है । हेतु समान ही है । यह देखा भोज की हेतु धारणा भी दण्डी की धारणा के जा चुका है कि दण्डी के पूर्ववर्ती भामह के पूर्व भी हेतु अलङ्कार की धारणा किसी-न-किसी रूप में प्रचलित रही होगी । इसीलिए भामह ने उसके अलङ्कारत्व की मान्यता का खण्डन किया था । आचार्य दण्डी ने न केवल उसका अलङ्कार के रूप में अस्तित्व स्वीकार किया, वरन् उसे वाणी के उत्तम अलङ्कारों में स्थान दिया । भोज ने दण्डी के ही हेतु स्वरूप को स्वीकार किया है; किन्तु उसे उत्तम आभूषण मानना उनका अभिमत नहीं जान पड़ता । क्रिया के हेतु एवं कारकादि के भेदों के आधार पर भोज ने इस अलङ्कार के अनेक भेदों को कल्पना कर ली है । ' श्रहेतु अहेतु अलङ्कार का स्वरूप रुद्रट के अतिशयमूलक अहेतु से मिलता-जुलता है । भोज ने प्रस्तुत अलङ्कार में ही रुद्रट के वास्तव वगंगत कारणमाला अलङ्कार का अन्तर्भाव मान लिया है । इस मान्यता का कोई सबल आधार नहीं जान पड़ता । सूक्ष्म हेतु की तरह सूक्ष्म के भी अलङ्कारत्व की स्वीकृति में भोज पर दण्डी की मान्यता का प्रभाव है । इस अलङ्कार के स्वरूप निर्धारण में भी भोज दण्डी से पूर्णतः प्रभावित हैं । 3 १. भोज —- सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ३० २. यस्तु कारणमालेति हेतुसन्तान उच्यते । पृथक् पृथगसामर्थ्यात् सोऽप्यहेतोर्न भिद्यते ॥ - भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ६३ ३. तुलनीय - भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ६७ तथा दण्डी, काव्यादर्श, २, २६०
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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