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________________ अलङ्कार-धारणा का विकास [ १६३ उत्तर भोज के उत्तर अलङ्कार का स्वरूप आचार्य रुद्रट के वास्तव-वर्गगत 'सार' अलङ्कार के स्वरूप से मिलता-जुलता है। पदार्थ के सार-कथन में रुद्रट ने सार नामक वास्तव अलङ्कार का सद्भाव माना था। भोज ने उसे ही सरस्वतीकण्ठाभरण में उत्तर संज्ञा से अभिहित किया है।' यह उत्तर नाम भी रुद्रट के 'काव्यालङ्कार' से ही गृहीत है। रुद्रट ने सार और उत्तर के पृथक्-पृथक् स्वरूपों का विवेचन किया था। भोज ने दोनों के स्थान पर एक ही अलङ्कार की सत्ता स्वीकार की और उसे ही 'सरस्वतीकण्ठा भरण'' में उत्तर तथा 'शृङ्गार-प्रकाश' में सार संज्ञा से अभिहित किया । विरोध भामह, दण्डी आदि प्राचीन आचार्यों के विरोध, असङ्गति, प्रत्यनीक, अधिक एवं विषम अलङ्कारों के स्थान पर भोज ने इस एक अलङ्कार का ही उल्लेख किया है। अन्य अलङ्कार इसी में अन्तभुक्त मान लिये गये हैं । पदार्थों की पारस्परिक असङ्गति को इसका लक्षण माना गया है। प्राचीनों ने भी. विषम, विरोध, असङ्गति आदि में असङ्गत पदार्थों की घटना पर बल दिया था। भोज ने विरोध के अङ्ग के रूप में असङ्गति, प्रत्यनीक आदि का उल्लेख किया है । सम्भव भोजराज ने सम्भव नामक नवीन अलङ्कार की कल्पना की है। इसके लक्षण में उन्होंने यह मन्तव्य प्रकट किया है कि जहाँ प्रचुर कारण को देख कर 'ऐसा हो सकता है', यह ज्ञान हो, वहाँ सम्भव अलङ्कार होता है।४ डॉ० राघवन ने इसे प्राचीन आचार्यों की उत्प्रेक्षा के समान मान लिया है।५ इसका कारण सम्भवतः ‘सम्भावना' शब्द है। उत्प्रेक्षा में भी एक वस्तु में १. पदार्थानां तु यः सारस्तदुत्तरमिहोच्यते। -भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३, ७४ २. द्रष्टव्य-डॉ० राघवन, Bhoja's 'Sr. Prakash, पृ० ३८७ ३. विरोधस्तु पदार्थानां परस्परमसङ्गतिः। असंगतिः प्रत्यनीकमधिकं विषमञ्च सः॥ -भोज, सरस्वतीकण्ठाभरण, ३७६ ४. प्रभूतकारणालोकात् स्यादेवमिति सम्भवः।-वही, ३, ८६ ५. डॉ० राघवन, Bhojas Sr. Prakash, पृ० ३८७
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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