SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 665
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६४२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण उन्होंने भी विकल्प को समुच्चय का प्रतिपक्षी या विपरीतधर्मा कहा और उसका सौन्दर्य औपम्यगर्भ होने में माना । froकर्ष यह कि ऐसी स्थिति की कल्पना, जिसमें समान बल वाले दो पदार्थों के एक साथ एकत्र प्राप्त होने पर एक पक्ष के ग्रहण का निर्णय करना हो, विकल्प का उदाहरण मानी जायगी। दो विरोधी पक्षों में एक का बल अधिक तथा दूसरे का बल कम होने पर पक्ष-ग्रहण के निर्णय में विकल्प की स्थिति ही नहीं आयेगी । समान बल वाले पदार्थों में से एक के चयन में मन अनिर्णय की स्थिति में पड़ता है, उसमें विकल्प की स्थिति आती है । व्यक्ति के सामने दो पदार्थ रहते हैं, दोनों में समान आकर्षण या विकर्षण रहता है तथा दोनों में से एक पक्ष के ग्रहण का विकल्प उसके सामने रहता है । ऐसी ही स्थिति की कल्पना में विकल्प अलङ्कार की सत्ता मानी गयी है । विकास की दृष्टि से विकल्प के स्वरूप में एकरूपता रही है । श्रसम्भव असम्भव अलङ्कार के स्वतन्त्र अस्तित्व की कल्पना जयदेव के पूर्व नहीं हुई थी । जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने इसके अस्तित्व को स्वीकार कर "अर्थ निष्पत्ति का असम्भाव्यत्व - वर्णन' इसका लक्षण माना । जगन्नाथ आदि आचार्यों ने असम्भव का अलङ्कारत्व स्वीकार नहीं किया है । कारण यह है कि असम्भव का स्वरूप विरोधाभास से इतना मिलता-जुलता है कि विरोधाभास में ही असम्भव का अन्तर्भाव सम्भव है । 'कुवलयानन्द' के टीकाकार ने टिप्पणी में इस तथ्य का निर्देश किया है कि असम्भव का दिया हुआ उदाहरण विरोधाभास का भी उदाहरण है । अतः, असम्भव का विरोधाभास से स्वतन्त्र अस्तित्व मानना कुछ लोग उचित नहीं समझते । अस्तु, एक आचार्य के द्वारा कल्पित होने तथा उनके कुछ अनुयायियों के द्वारा उसी रूप में स्वीकृत होने के कारण असम्भव का एक ही रूप मान्य रहा – 'अर्थ निष्पत्ति के असम्भव होने का वर्णन ।' १. असम्भवोऽर्थनिष्पत्तरसम्भाव्यत्ववर्णनम् । - अप्पय्य दीक्षित, कुवलयानन्द, ८४ २. नेदमलंकारान्तरम्; किन्तु विरोधाभासः 'अयं वारामेको निलय' इत्यत्रोदाहृतपद्य पानक्रियाया अगस्त्येन कर्त्रा समुद्र ेण कर्मणा च द्रव्येण विरोधः ; अगस्त्यमुनेर्नाम मनुजविशेषस्य समुद्रपानक्रियाऽसंभवात् ; सोऽयं विरोधो हि मुनेस्तपःप्रभावातिरेकेण परास्त इति विरोधाभास एवेत्यन्ये । - - कुवलयानन्द, टिप्पणी, पृ० १०८
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy