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अलङ्कार-धारणा का विकास
[ २०५ अग्निपुराणकार की शब्दार्थालङ्कार-धारणा सबसे विलक्षण है। उन्होंने जिन छह शब्दार्थालङ्कारों का विवेचन किया है, उनमें से एक भी भारतीय काव्यशास्त्र में अलङ्कार के रूप में स्वीकृति नहीं पा सका है। फिर भी यह नहीं माना जा सकता कि प्रशस्ति, कान्ति, औचित्य आदि की धारणा ‘अग्निपुराण' की मौलिक उद्भावना है । भोज ने भी उनके स्वरूप पर विचार किया था। उन्होंने कान्ति, औचित्य आदि को काव्यालङ्कार नहीं मान कर काव्य-गुण के रूप में स्वीकार किया था । अग्निपुराणकार ने उन्हें शब्दार्थालङ्कार मान लिया। यावदर्थपदत्व भोज के संमितत्त्व गुण का ही पर्याय है। हमने अपनी पुस्तक 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन' में औचित्य के गुणत्व का खण्डन किया है। उन्हीं युक्तियों से उसे अलङ्कार मानने वाला मत भी खण्डित हो जाता है। औचित्य गुण, अलङ्कार आदि का प्राण है । उसे गुण या अलङ्कार के एक प्रकार के रूप में सीमित कर देना समीचीन नहीं। अभिव्यक्ति को प्रकटत्व कहकर व्यञ्जना या ध्वनि से अभिन्न माना गया है और उसके भेदों के रूप में व्यञ्जना पर आधृत आक्षेप, समासोक्ति, अपह्नति, पर्यायोक्ति का उल्लेख हुआ है । स्पष्टतः प्राचीनों के इन अलङ्कारों का ही समष्टि नाम अभिव्यक्ति है। निष्कर्ष यह कि शब्दगत, अर्थगत तथा शब्दार्थगत अलङ्कार-वर्गों में किसी भी नवीन अलङ्कार की उद्भावना 'अग्निपुराण' में नहीं हुई। कुछ नवीन नाम अवश्य कल्पित हुए ; किन्तु वे प्राचीन काव्यतत्त्वों के ही नवीन अभिधान-मात्र हैं।
प्राचार्य मम्मट आचार्य मम्मट की गणना भारतीय काव्यशास्त्र के अङ्ग लि-परिगणनीय विचारकों की प्रथम पंक्ति में होती है। मम्मट के पूर्व काव्य-सिद्धान्त के विभिन्न पक्षों का जो विवेचन चल रहा था, उसमें मौलिक उद्भावनाओं की शक्ति अवश्य थी; किन्तु उसकी दो सीमाएँ थीं। पहली, आचार्यों का पूर्वाग्रह, जो स्वस्थ शास्त्रीय चिन्तन में बाधक हुआ। अलङ्कार, रीति, वक्रोक्ति आदि काव्य-तत्त्वों में से किसी एक को ही काव्य-सर्वस्व सिद्ध करने का आग्रह लेकर रीति-ग्रन्थ लिखने वाले आचार्यों में दृष्टि-सङ्कोच का होना स्वाभाविक था। फलतः तत्तत्सम्प्रदायों में काव्य के एक-एक तत्त्व का सूक्ष्म विवेचन तो अवश्य