SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 81
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण १०. मौलिक अलङ्कार : - भामह के मौलिक अलङ्कारों के दो वर्ग माने जा सकते हैं— (क) पूर्ण मौलिक तथा (ख) अंशतः मौलिक । विभावना, विशेषोक्ति एवं यथासंख्य अलङ्कार पूर्णतः मौलिक हैं । श्लिष्ट आंशिक रूप से रूपक-धारण। से प्रभावित है तथा अंशतः मौलिंक । सहोक्ति पर दीपक का किञ्चित् प्रभाव है, साथ ही कुछ मौलिकता भी है । परिवृत्ति में गुणानुवाद, लक्षण तथा प्रशंसोपमा से कुछ साम्य होने पर भी आंशिक मौलिकता है । भाविक अलङ्कार भी अंशतः मौलिक है । पर्यायोक्त तथा समाहित भी भामह की मौलिक उद्भावना है । भामह ने हेतु, सूक्ष्म तथा लेश के अलङ्कारत्व का खण्डन किया है, चूँकि उनमें वक्रोक्ति का सद्भाव नहीं। इससे सिद्ध है कि भामह के पूर्व कुछ आचार्यों ने उक्त अलङ्कारों की सत्ता स्वीकार की थी, अन्यथा भामह अप्राप्त के निषेध में व्यर्थ श्रम नहीं करते । उदात्त, प्र ेय, ऊर्जस्वी आदि अलङ्कारों के लक्षण नहीं दिये गये हैं । यह अनुमान किया जा सकता है कि परिभाषित अलङ्कारों की अपेक्षा उक्त अलङ्कारों को भामह ने गौण महत्त्व दिया है । O आचार्य दण्डी भामह के बाद दण्डी के 'काव्यादर्श' में काव्यालङ्कारों का विशद विवेचन प्राप्त होता है । भामह के उनचालीस अलङ्कारों के स्थान पर दण्डी ने छत्तीस अलङ्कार स्वीकार किये है; किन्तु विशेष अलङ्कारों के भेदोपभेदों की कल्पना में दण्डी काव्यशास्त्र के सभी आचार्यों से आगे हैं । 'काव्यादर्श' में अलङ्कारों की संख्या - परिमिति का कारण कदाचित् उनके अङ्गों, उपाङ्गों की अपरिमिति ही है । उन्होंने भामह के कुछ अलङ्कारों की स्वतन्त्र सत्ता अमान्य बतायी और उन्हें अन्य अलङ्कारों के अङ्ग के रूप में स्वीकार कर लिया । उदाहरणार्थ:- भामह ने प्रतिवस्तूपमा, अनन्वय, उपमेयोपमा, ससन्देह, उपमारूपक तथा उत्प्रेक्षावयव को स्वतन्त्र अलङ्कार की पदवी प्रदान की थी; किन्तु दण्डी ने उन्हें उपमा, रूपक तथा उत्प्र ेक्षा के अङ्ग के रूप में स्वीकार किया । प्रतिवस्तूपमा उपमा का एक भेद माना गया । अनन्वय असाधारणोपमा की संज्ञा देकर उपमा-भेद स्वीकार किया गया । उपमेयोपमा
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy