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"७३४ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण एक भेद यह है कि अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत अर्थ वाच्य तथा प्रस्तुत व्यङ ग्य होता है; पर व्याजस्तुति में स्तुतिमुखेन की जाने वाली निन्दा अथवा निन्दामुखेन की जाने वाली स्तुति का शुद्ध व्यङ्ग्य होना आवश्यक नहीं। दूसरा भेद यह है कि अप्रस्तुतप्रशसा में कार्य प्रस्तुत रहने पर कारण का, कारण “प्रस्तुत रहने पर कार्य आदि का कथन होता है; पर व्याजस्तुति में कार्य-कारणभाव-सम्बन्ध का अभाव रहता है। तीसरे, स्तुति से निन्दा तथा निन्दा से स्तुति का सौन्दर्य भी व्याजस्तुति का व्यवच्छेदक है । उद्योतकार ने व्याजस्तुति के एक उदाहरण का विवेचन करते हुए कहा है कि उसमें अप्रस्तुतप्रशंसा मानने की भ्रान्ति नहीं होनी चाहिए; क्योंकि उन दोनों अलङ्कारों का सौन्दर्य अलग-अलग है। काव्यलिङ्ग और अनुमान
मम्मट आदि आचार्यों ने काव्यलिङ्ग तथा हेतु को अभिन्न माना है। टीकाकारों ने उनके काव्यलिङ्ग या हेतु से अनुमान का भेद-निरूपण किया है। उद्योतकार के अनुसार व्याप्ति आदि का निर्देश अनुमान अलङ्कार का काव्यलिङ्ग से भेदक है ।२ काव्यलिङ्ग में व्याप्ति आदि अनुमान के अङ्गों का निर्देश नहीं होता। कमलाकर भट्ट ने इस आधार पर भी दोनों अलङ्कारों का भेद किया है कि अनुमान अलङ्कार में ज्ञापक-हेतु रहता है और काव्यलिङ्ग में कारक-हेतु । पण्डितराज जगन्नाथ का मत उद्योतकार के मत से मिलताजुलता ही है। काव्यलिङ्ग और परिकर
काव्यलिङ्ग में पदार्थ या वाक्यार्थ ही हेतु के रूप में उपन्यस्त होता है; पर परिकर में पदार्थ के बल से अथवा वाक्यार्थ के बल से प्रतीयमान अर्थ हेत
१. ..."न चात्राप्रस्तुतप्रशंसवास्त्विति वाच्यम् स्तुतिनिन्दात्मकतया विच्छित्तिविशेषात् कार्यकारणभावादिसम्बन्धाभावाच्च शुद्धव्यञ्जनाविषयत्वा
__भावाच्च ।-काव्यप्रकाश, उद्योत, उद्धृत, बालबोधनी पृ० ६७२ २. व्याप्त्याद्यनिर्देशान्नानुमानसङ्करः।-वही, पृ० ६७८ ३. अत्र (काव्यलिङ्ग) कारकहेतोरुक्तिः अनुमानालङ्कारे तु ज्ञापकहेतोरुक्तिरिति भेद इति कमलाकरभट्टाः।-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका,
पृ० ६७८ ४. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७४२-४३