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अलङ्कारों का पारस्परिक भेद [ ७३३ अर्थान्तरन्यास और अनुमान
अनुमान में कविनिबद्ध प्रमाता के अनुमान का वर्णन होता है। उसमें साध्य, हेतु आदि अनुमान के अङ्गों का भी उल्लेख होता है; पर अर्थान्तरन्यास में अनुमान के अङ्गभूत हेतु आदि का उल्लेख न कर केवल सामान्य-विशेष आदि में से किसी एक का कथन कर उसका अन्य विशेष-सामान्य आदि, उक्ति से समर्थन किया जाता है।' इस प्रकार दोनों का भेद स्पष्ट है। अर्थान्तरन्यास और विकस्वर
अर्थान्तरन्यास में सामान्य का विशेष से अथवा विशेष का सामान्य से समर्थन होता है, विकस्वर में विशेष का सामान्य से समर्थन कर पुनः उस समर्थक सामान्य का विशेष से समर्थन किया जाता है। विशेष का सामान्य से समर्थन करने की स्थिति तो अर्थान्तरन्यास के ही समान है; पर पुनः समर्थक का समर्थन विकस्वर का वैशिष्ट्य है। अर्थान्तरन्यास की-सी पूर्व-स्थिति को देखते हुए उद्योतकार ने विकस्वर को अर्थान्तरन्यास का ही एक रूप मान कर उसके स्वतन्त्र अस्तित्व का खण्डन किया है । यह समीचीन नहीं जान पड़ता। जब थोड़े-थोड़े भेद से पृथक्-पृथक् अलङ्कारों की कल्पना स्वीकृत हुई तो अर्थान्तरन्यास से विकस्वर के उक्त वैशिष्ट्य को ध्यान में रखते हुए दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व भी स्वीकार किया ही जाना चाहिए। मम्मट के परवर्ती जयदेव, अप्पय्य दीक्षित आदि ने विकस्वर का स्वतन्त्र अस्तित्व माना है, पर पण्डितराज जगन्नाथ को विकस्वर का अर्थान्तरन्यास, उदाहरण आदि से पृथक् अस्तित्व अमान्य है। प्रस्तुत पंक्तियों के लेखक को अप्पय्य दीक्षित का मत ही समीचीन जान पड़ता है। व्याजस्तुति और अप्रस्तुतप्रशंसा ___ व्याजस्तुति में निन्दामुखेन स्तुति या स्तुतिमुखेन निन्दा की जाती है। अप्रस्तुतप्रशंसा में अप्रस्तुत के वर्णन से प्रस्तुत की व्यञ्जना होती है। दोनों में १. (अर्थान्तरन्यासस्य) साक्षाद्व्याप्त्यादेरनभिधानादनुमानतो भेदः । कविनिबद्धप्रमात्रान्त रनिष्ठानुमितेरेवानुमानालंकारविषयत्वाच्च ।
-काव्यप्रकाश, बालबोधिनी, पृ० ६६१ २. एतेन "यस्मिन् विशेषसामान्यविशेषाः स विकस्वरः" यथा अनन्तेति इति विकस्वरालङ्कारोऽयं पृथगित्यपास्तमिति उद्योते स्पष्टम् ।
-काव्यप्रकाश, झलकीकरकृत टीका, पृ० ६६३. ३. द्रष्टव्य-जगन्नाथ, रसगङ्गाधर, पृ० ७५२-५३