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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
आचार्य दण्डी ने यमक के भेदोपभेद-विवेचन में तो पर्याप्त श्रम किया है पर उसके लक्षण- निरूपण में उन्होंने विशेष सावधानी नहीं रखी है । उन्होंने आचार्य भरत के मतानुसार 'वर्णसङ्घात की आवृत्ति' को तथा दूसरे स्थल पर भी 'वर्ण संहति की अव्यवहित अथवा व्यवहित आवृत्ति' को यमक लक्षण मान लिया । परिणामतः उनके यमक लक्षण में अतिव्याप्ति दोष की आशङ्का आ गयी । भामह के द्वारा स्वीकृत लाटानुप्रास की प्रकृति पर सम्भवतः इस उलझन से बचने के लिए ही दण्डी ने विचार नहीं किया। अनुप्रास और यमक की पृथक्-पृथक् सत्ता स्वीकार करने पर दोनों के व्यावर्त्तक धर्मों का उनके लक्षण में उल्लेख आवश्यक है । अनुप्रास में वर्णावृत्ति और यमक में वर्णसङ्घ की आवृत्ति; दोनों की प्रकृति के व्यावर्त्तन के लिए पर्याप्त नहीं है । कारण यह है कि अनुप्रास के भी कुछ रूपों में वर्णसङ्घ की ही आवृत्ति होती है, वर्णमात्र की नहीं । दण्डी के द्वारा यमक - अनुप्रास - विवेक की उपेक्षा का कारण यह हो सकता है कि वे माधुर्य गुण के पोषक श्रत्यनुप्रास को ही वैदर्भ काव्य का (जिसे वे उत्तम काव्य मानते थे ) स्वीकार्य गुण समझते थे । उनकी मान्यता थी कि गौड मार्ग के कवि रस- पोषक श्रत्यनुप्रास को छोड़ अनुप्रास की योजना में रुचि रखते हैं । वे अनुप्रास और यमक, दोनों को, जिनमें केवल वर्ण या वर्णसङ्घ की आवृत्ति अपेक्षित होती है, उपेक्षणीय मानते थे । उन्होंने यमक के अन्त में विवेचन का कारण भी यही बताया है । 3 अलङ्कार के रूप में दण्डी ने अनुप्रास की सत्ता स्वीकार भी नहीं की है । सम्भव है कि वे अनुप्रास को भी अलङ्कार के रूप में यमक में ही अन्तभूत मानते हों । फिर भी दण्डी उक्त अव्यवस्था के दोषारोपण से मुक्त नहीं हो सकते ।
उद्भट ने यमक की सत्ता ही स्वीकार नहीं की । शब्दावृत्ति, पदावृत्ति आदि को उन्होंने अनुप्रास के अन्तर्गत रखा । यमक की इस अस्वीकृति का कोई सङ्गत कारण नहीं ।
१. आवृत्ति वर्णसङ्घातगोचरां यमकं विदुः । दण्डी, काव्याद० १, ६१ तथा अव्यपेतव्यपेतात्मा व्यावृत्तिर्वर्णं संहतेः ।
यमकं तच्च पादानामादिमध्यान्तगोचरम् ॥ - वही, ३, १
२. उक्त यमक लक्षण से तुलनीय - वर्णावृत्तिरनुप्रासः पादेषु च पदेषु च ।
वही, १, ५५.
३. तत्तु (यमकं तु) नैकान्तमधुरमतः पश्चाद्विधास्यते । - वही, १, ६१ ४. दण्डी ने गुण-निरूपण के प्रसङ्ग में ही गौडी के अनुप्रास का स्वरूपनिरूपण कर दिया है । - द्रष्टव्य, वही, प्रथम परिच्छेद ।