________________
अलङ्कारों का स्वरूप - विकास
[ ४०१
वामन ने यमक के लक्षण में यह स्पष्ट किया कि अनेकार्थक पद अथवा अक्षर की आवृत्ति स्थान नियम से होने पर यमक अलङ्कार होता है ।' वामन के इस लक्षण में चिन्त्य है कि सार्थक केवल पद ही होते हैं । अतः पदावृत्ति के स्थल में ही पदों की भिन्नार्थकता अपेक्षित होगी । जहाँ निरर्थक समश्र ुति वाले वर्णों की भी स्थान नियम से आवृत्ति होगी, वहाँ भी यमक की सत्ता मानी जायगी। भरत ने यमक में केवल शब्दाभ्यास आवश्यक माना था । भामह के अनुसार अर्थ - भेद से वर्णावृत्ति ( जिसका अर्थ पदावृत्ति ही होगा, चूँकि अर्थ-भेद पद का ही हो सकता है ) यमक का लक्षण है । वामन ने यमक के लक्षण का और परिष्कार किया और उसके दो स्पष्ट भेद कर दिये(क) सार्थक पदों की अर्थभेद से स्थान नियम के साथ आवृत्ति तथा (ख) निरर्थक वर्णसङ्घ की स्थान- नियम के साथ आवृत्ति । वामन ने अनुप्रास और यमक का भेद भी स्पष्ट कर दिया है। उनके मतानुसार
(क) यमक में पद या वर्णसङ्घ की आवृत्ति नियत स्थान में ही होती है, पर अनुप्रास में आवृत्ति का स्थान अनियत है ।
(ख) यमक में पद की आवृत्ति अर्थभेद से ही हो सकती है, अनुप्रास में यह नियम नहीं ।
(ग) यमक में पूर्ण रूप से स्वर और व्यञ्जन - समुदाय की उसी क्रम से आवृत्ति होती है, पर अनुप्रास में स्वर-भेद के साथ भी व्यञ्जनावृत्ति हो सकती है ।
वामन का यमक-लक्षण भी आचार्य भरत की यमक धारणा का ही स्पष्टीकरण करता है । उसके सभी विशेषणों की कल्पना अनुप्रास और यमक के स्वतन्त्र अस्तित्व के प्रतिपादन के लिए की गयी है ।
रुद्रट ने भी यमक में आवृत्त वर्णों में श्र ुति की समता, क्रम की समानता तथा ( सार्थक पदों में ) अर्थ की भिन्नता वाञ्छनीय मानी है । वामन के स्थान- नियम को रुद्रट ने यमक का आवश्यक लक्षण नहीं माना है ।
वक्रोक्तिवादी कुन्तक ने वर्णविन्यास- वक्रता के भेद के रूप में यमक का लक्षण -निरूपण किया है । उन्होंने यमक-विषयक वामन की मान्यता को स्वीकार १. पदमनेकार्थमक्षरं वाऽवृत्त स्थाननियमे यमकम् ।
- वामन, काव्यालं० सू०, ४, १,
२. तुल्यश्रतिक्रमाणामन्यार्थानां मिथस्तु वर्णानाम् । पुनरावृत्तिर्यमकम् ४. X
[
२६
X x ॥ - रुद्रट, काव्यालङ्कार; ३,१