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________________ ४०२ ] अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण कर उसमें अपनी ओर से भी कुछ जोड़ा है। उन्होंने यमक की परिभाषा में कहा है कि जहाँ समान वर्ण वाले, पर भिन्नार्थक; प्रसादगुणयुक्त, श्र तिपेशल, औचित्ययुक्त पद की स्थान-नियम के साथ आवृत्ति होती हो, वहाँ यमक अलङ्कार होता है।' अर्थभेद से समान वर्ण वाले पद की नियत-स्थान में आवृत्ति की धारणा प्राचीन ही है। कुन्तक की इस परिभाषा में निरर्थक वर्ण-समुदाय की आवृत्ति में यमक की अव्याप्ति हो जाती है। प्रसाद गुण से युक्त होना, श्र तिपेशल होना तथा औचित्ययुक्त होना कुन्तक ने यमक में आवश्यक माना है। यह धारणा नवीन है। यमक में प्रसाद गुण भी हो तो अवश्य ही उसका सौन्दर्य बढ़ जायगा, पर प्रसादत्व को यमक का आवश्यक लक्षण मानना उसके क्षेत्र को अनावश्यक रूप से सीमित कर देना है। प्रसादेतर ओज आदि के स्थल में भी यमक के सद्भाव की सम्भावना को समाप्त नहीं किया जा सकता। श्र तिपेशलत्व विशेषण का औचित्य भी चिन्त्य है। समान वर्ण, पद आदि की आवृत्ति के मूल में श्रव्यत्व की धारणा प्राचीन काल से ही रही है, किन्तु कुन्तक ने श्र तिपेशल का विशेष अर्थ में प्रयोग किया है। उनके अनुसार अकठोर वर्ण-विन्यास ही श्र तिमधुर होता है। इस तरह कठोर वर्ण या पद की आवृत्ति में कुन्तक के अनुसार यमक का सद्भाव स्वीकार्य नहीं होगा। पर भारतीय साहित्य में कठोर पदावृत्ति-रूप यमक के भी अनेक सुन्दर उदाहरण पाये जाते हैं । अतः यह लक्षण अव्याप्ति दोष से मुक्त नहीं। औचित्ययुक्त का तात्पर्य स्पष्ट करते हुए कुन्तक ने कहा है कि जहां यमकरचना के व्यसन से औचित्य की हानि नहीं होती हो, वहीं यमक का अलङ्कारत्व स्वीकीर्य होगा। अलङ्कार-विशेष के लक्षण में यह उल्लेख अनावश्यक है। औचित्य तो गुण, अलङ्कार आदि का प्राण ही होता है। किसी भी अलङ्कार की योजना से यदि औचित्य में न्यूनता आती है तो वह अलङ्कार अलङ्कार नहीं माना जा सकता। अतः कुन्तक ने यमक-परिभाषा में कुछ स्वतन्त्र कल्पना करने पर भी इस क्षेत्र में कोई महत्त्वपूर्ण योगदान नहीं दिया । रुय्यक, भोज, अग्निपुराणकार, मम्मट, विश्वनाथ आदि संस्कृत-अलङ्कार १. समानवर्णमन्याथं प्रसादि श्रुतिपेशलम् । औचित्ययुक्तमाद्यादिनियतस्थानशोभि यत् ।। यमकम् ४ ४ ४ ४ ४॥ -कुन्तक, वक्रोक्तिजी० २,६-७
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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