SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 426
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अलङ्कारों का स्वरूप-विकास [ ४०३ शास्त्र के प्रायः सभी आचार्यों ने वामन, रुद्रट आदि की यमक-विषयक मान्यता को ही स्वीकार किया है। हिन्दी-रीति-साहित्य में भी यमक का परम्परागत स्वरूप ही स्वीकृत हुआ है। उसके कुछ नवीन भेदोपभेदों की कल्पना अवश्य की गयी, पर उसका सामान्य लक्षण वामन, रुद्रट आदि के मतानुसार ही कल्पित हुआ। याकूब खां ने यमक में श्लेष के तत्त्व की कल्पना की,' पर वह महत्त्वपूर्ण कल्पना नहीं। आवृत्त पद की भिन्नार्थकता की धारणा में ही यह धारणा अन्तनिहित थी। सभी आचार्यों की यमक-धारणा का निष्कर्ष इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है-यमक में स्वर-व्यञ्जन समुदाय की उसी क्रम में पाद के आदि, मध्य, अन्त आदि नियत स्थान में आवृत्ति होती है। यदि वह वर्ण-समुदाय सार्थक हुआ तो यह आवश्यक है कि आवृत्त पदों का अर्थ परस्पर भिन्न हो। निरर्थक वर्ण-समुदाय की आवृत्ति में स्वर- व्यञ्जन का समान क्रम तथा आवृत्ति का नियत स्थान-मात्र अपेक्षित होता है। आवृत्ति व्यवहित भी हो सकती है और अव्यवहित भी। वर्ण-समुदाय की आवृत्ति की निम्नलिखित स्थितियां हो सकती हैं (क) दोनों पद सार्थक हों, (ख) दोनों वर्ग समुदाय निरर्थक हों तथा (ग) एक अंश सार्थक और अन्य निरर्थक हो। कहीं पूर्व अंश सार्थक और उत्तर अंश निरर्थक हो सकता है, कहीं इसके विपरीत पूर्व अंश निरर्थक और उत्तर अंश सार्थक हो सकता है । रस के साथ यमक का नियत सम्बन्ध नहीं होने से कुछ आचार्यों ने इसे महत्त्वहीन अलङ्कार माना है, पर काव्य-प्रवृत्ति को देखने से ऐसा जाना पड़ता है कि महाकवियों ने भी यमक में रुचि दिखलायी है। आचार्य भरत १. यमक सहित अश्लेष, पुनि पुनि पद आवै वही । अद्भुत कहै विशेष, अचरज उपज आय चित । -याकूब खां, रसभूषण, पृ० ४२। उद्ध त, ओमप्रकाश शर्मा, रीति. अलङ्कार-साहित्य, शास्त्रीय विवेचन पृ०, ३१८ २. दण्डी ने यमक को 'नकान्तमधुर' कह कर अन्त में विवेच्य समझा था। कुन्तक ने भी उसमें शोभा का अभाव माना है। दोनों के यमक-लक्षण द्रष्टव्य
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy