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________________ हिन्दी रीति-साहित्य में अलङ्कार-विषयक उद्भावनाएँ [३०६ उनके क्रम का स्वरूप ही अस्पष्ट रह गया है । एकावली आदि अलङ्कारों को क्रम में समाविष्ट करने की प्रेरणा केशव को आचार्य रुय्यक के 'अलङ्कार-सूत्र' से मिली होगी। रुय्यक ने एकावली, कारणमाला, मालादीपक और सार अलङ्कारों को शृङ्खलाबद्ध या क्रम-मूलक अलङ्कार-वर्ग के अन्तर्गत परिगणित किया है। केशव ने मालादीपक को तो दीपक के सन्दर्भ में परिभाषित किया; 'पर एकावली और कारणमाला के स्थान पर क्रम-नामक अलङ्कार की सत्ता की ही कल्पना कर ली। वस्तुतः क्रम अपने आप में कोई स्वतन्त्र अलङ्कार नहीं। उसका एकावली, कारणमाला आदि क्रम-मूलक अलङ्कारों से पृथक अस्तित्व नहीं। केशव ने अनुगणना से एक, दो आदि संख्याओं के वर्णन में गणना अलङ्कार माना है। यह वस्तुतः अलङ्कार है ही नहीं। प्रेमालङ्कार की कल्पना असङ्गत है। प्रेम-जैसे हृदय के व्यापक भाव के वर्णन को अलङ्कार-विशेष मान लिया गया है। इसके लक्षण में हृदय से कपट का विनाश और प्रेम के विकास पर बल दिया गया है। इस प्रकार सौहार्द का चित्रण केशव के अनुसार प्रेमालङ्कार होगा। सम्भवतः, केशव ने प्राचीन आचार्यों की प्रेय-धारणा को भ्रम-वश प्रेम अलङ्कार के रूप में विकृत कर प्रस्तुत कर दिया है। लाला भगवान दीन ने 'प्रिया-प्रकाश' में दोष-परिहार के लिए लिखा है- 'केशव ने उदाहरण में प्रेम भाव का ही वर्णन किया है। इससे यह कदापि न समझना चाहिए कि प्रेम-वर्णन में ही प्रेमालङ्कार होगा; वरन् यह जानना चाहिए कि किसी भी मनोभाव का सत्य और यथार्थ वर्णन ही प्रेमालङ्कार है। यह केशव के प्रेमालङ्कारलक्षण पर दीन जी के स्वमत का आरोप-मात्र है। केशव की प्रेमालङ्कारपरिभाषा से यह अर्थ नहीं निकलता। 'उपजै पूरण क्षेम' में प्रेम-भाव के उदय की स्पष्ट स्वीकृति है। केशव की वक्रोक्ति-धारणा भामह आदि की वक्रोक्ति-धारणा से अभिन्न है। भामह ने उसे विशिष्ट अलङ्कार नहीं माना था। केशव ने उस व्यापक १. कपट निपट मिटि जाय जहँ, उपजे पूरण क्षेम । ताही सों सब कहत हैं, केशव उत्तम प्रेम ॥ -केशव, कविप्रिया, ११, २७ २. वही, प्रियाप्रकाश टीका, पृ० १६३ ३. तुलनीय-केशव, कविप्रिया, १२, ३ तथा भामह, काव्यालङ्कार, २, ८५
SR No.023467
Book TitleAlankar Dharna Vikas aur Vishleshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhakant Mishra
PublisherBihar Hindi Granth Academy
Publication Year1972
Total Pages856
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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