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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
इस प्रकार निदर्शना के स्वरूप-विधान में वस्तुओं के सम्बन्ध-साधन का तत्त्व - युक्ति लक्षण से तथा उपमानोपमेय-भाव का तत्त्व उपमा अलङ्कार से लिया गया है।
'परिवृत्ति
उद्भट के परिवृत्ति अलङ्कार का स्वरूप दण्डी की परिवृत्ति के स्वरूप से मिलता-जुलता ही है। जहाँ समान वस्तुओं का पारस्परिक परिवर्तन वर्णित हो, न्यून वस्तु से अधिक वस्तु का परिवर्तन वणित हो अथवा उत्तम वस्तु से हीन वस्तु के परिवर्तन का उल्लेख हो वहाँ उद्भट के अनुसार परिवृत्ति अलङ्कार होता है।' स्वभावोक्ति
क्रिया-लग्न मृग-शिशु आदि की चेष्टा के वर्णन में उद्भट ने स्वभावोक्ति अलङ्कार का सद्भाव स्वीकार किया है ।२ स्वभावोक्ति के लिए केवल वस्तुस्वभाव का कथन पर्याप्त नहीं है। उद्भट की स्वभावोक्ति अलङ्कार-धारणा आचार्य भरत की अर्थव्यक्ति-गुण-धारणा से मिलती-जुलती है। भरत ने प्रसिद्ध अर्थ वाली धातु से लोक की स्वाभाविक क्रिया का वर्णन अर्थव्यक्ति में वाञ्छनीय माना है। उत्तर काल में भी स्वभावोक्ति अलङ्कार और अर्थव्यक्ति गुण की
पृथक्-पृथक् सत्ता की कल्पना होती रही है; किन्तु उनका स्वरूप इतना - मिलता-जुलता है कि दोनों के बीच बहुत सूक्ष्म विभाजक रेखा ही खींची जा सकती है। इस विषय पर हमने अपने ग्रन्थ 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन' में विचार किया है। दोनों के स्वरूप-गत साम्य को दृष्टि में रखते हुए १. समन्यूनविशिष्टस्तु कस्यचित् परिवर्तनम् । अर्थानर्थस्वभावं यत् परिवृत्तिरभाणि सा॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ५,३१ २. क्रियायां संप्रवृत्तस्य हेवाकानां निबन्धनम् ।
कस्यचिन्मृगडिम्भादेः स्वभावोक्तिरुदाहृता ।। -वही, ३, ८ ३. सुप्रसिद्धाभिधाना तु लोककर्मव्यवस्थिता। या क्रिया क्रियते काव्ये सार्थव्यक्तिः प्रकीर्त्यते ॥
-भरत, ना० शा० १६, १०६ ४. द्रष्टव्य-लेखक की पुस्तक 'काव्य-गुणों का शास्त्रीय विवेचन'
अध्याय २