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अलङ्कार-धारणा का विकास
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स्वभावोक्ति अलङ्कार-धारणा का उत्स पूर्वाचार्य की स्वभावोक्ति-धारणा को माना जा सकता है। भरत को अर्थव्यक्ति गुण से पृथक् स्वभावोक्ति अलङ्कारकी कल्पना आवश्यक नहीं जान पड़ी होगी।
निष्कर्षतः पूर्ववर्ती आचार्यों के जिन अलङ्कारों के अभिधान स्वीकार कर उनके नवीन स्वरूप का विधान उद्भट ने किया है उनमें से अधिकांश का उद्गम-स्रोत भरत की लक्षण, गुण एवं अलङ्कार-धारणा में पाया जा सकता है। अर्थान्तरन्यास
उद्भट के अर्थान्तरन्यास का सामान्य स्वरूप भामह तथा दण्डी के अर्थान्तरन्यास से अभिन्न है', किन्तु जहाँ भामह और दण्डी ने उसके एक ही रूप का विवेचन किया था वहाँ उद्भट ने उसके चार भेदों की कल्पना कर ली। ये भेद समर्थ्य एवं समर्थक वाक्य के पौर्वापर्य तथा समर्थक 'हि' शब्द के उक्त तथा अनुक्त होने के आधार पर कल्पित हैं । इस भेद-कल्पना से अर्थान्तर- . न्यास के सम्बन्ध में मूल-धारणा में कोई अन्तर नहीं पड़ता। उत्प्रक्षा
उद्भट का सामान्य उत्प्रेक्षा-लक्षण भामह के लक्षण से अभिन्न है। उद्भट ने भामह के लक्षण-श्लोक को ही अंशतः उद्धृत कर दिया है । २ उन्होंने भाव तथा अभाव की सम्भावना के आधार पर उत्प्रेक्षा के दो भेद माने हैं। ससन्देह ___ ससन्देह अलङ्कार का सामान्य लक्षण उद्भट ने भामह के 'काव्यालङ्कार' से ही लिया है। उन्होंने उसके एक नवीन भेद की कल्पना की है। इस नवीन भेद को कारिका में सन्देह कहा गया है ( ससन्देह नहीं )। विवृतिकार १. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० २, ६, भामह, काव्यालं० २,.
७१-७३ तथा दण्डी, काव्याद० २, १६६ २. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं० ३, ४-५ तथा भामह,
काव्यालं० २, ६१ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ६, २ तथा भामह, काव्यालं०
३, ४३.