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अलङ्कार-धारणा : विकास और विश्लेषण
ने ससन्देह और सन्देह में अभेद माना है।' उद्भट के अनुसार जिस रचना में तात्त्विक सन्देह के अभाव-स्थल में भी, अन्य किसी अलङ्कार के सौन्दर्य की “सृष्टि के लिए, प्रत्यक्ष रूप में सन्देह का वर्णन होता है वहाँ ससन्देह का यह भेद माना जाता है।२ इसमें किसी वस्तु के सम्बन्ध में कवि के मन में कोई “सन्देह नहीं रहता। वह किसी वस्तु के सम्बन्ध में अन्य लोगों के सन्देह की सम्भावना कर लिया करता है। ससन्देह के प्रथम भेद में कवि किसी वस्तु से अन्य वस्तु के सादृश्या तिशय के कारण अपने मन में होने वाले सन्देह का वर्णन करता है। वस्तुतः ससन्देह के उक्त दोनों रूपों में वर्णन की भङ्गिमा का ही भेद है। कवि की स्थिति की दृष्टि से विचार करने पर दोनों में कोई तात्त्विक भेद नहीं जान पड़ता। वस्तु-वर्णन के समय वस्तु के सम्बन्ध में कवि के मन की संशयात्मक दशा नहीं रहा करती। दो वस्तुओं के सादृश्याधिक्य की व्यञ्जना के लिए सन्देह की कल्पना कर ली जाती है। स्पष्ट है कि उक्त दोनों ससन्देह-भेदों में सन्देह कवि-कल्पना-प्रसूत ही होता है। अतिशयोक्ति
उद्भट ने भामह की अतिशयोक्ति-परिभाषा को अक्षरशः स्वीकार कर लिया है। उन्होंने उसके चार भेदों का उल्लेख किया है। भामह तथा दण्डी • ने अतिशयोक्ति के एक ही रूप का विवेचन किया था । उद्भट की अतिशयोक्ति के चार प्रकार निम्नलिखित हैं
(क) भेद में अभेदकथन, (ख) अभेद में नानात्व-कल्पना, (ग) सम्भाव्यमानार्थनिबन्धन अर्थात् कल्पित वस्तु का वर्णन तथा (घ) कार्य की शीघ्रता के सूचन के लिए कारण के पूर्व ही कार्य का वर्णन ।४ अतिशयोक्ति का सामान्य
१. अस्य चालङ्कारस्य ससन्देहसन्देहशब्दाभ्यां द्वाभ्यामप्यभिधानमित्यु__ पदेशलक्षणयोर्न विरोधः । -काव्यालं०, सार सं०, विवृति, पृ० ५० २. असन्देहेऽपि सन्देहरूपं सन्देहनाम तत् ।
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, ६, ५ ३. द्रष्टव्य-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, २३ तथा भामह,
काव्यालं० २,८१ ४. भेदे नान्यत्वमन्यत्र, नानात्वं यत्र बध्यते ।
तथा सम्भाव्यमानार्थनिबन्धेऽतिशयोक्तिगीः ।। कार्यकारणयोर्यत्र पौर्वापर्यविपर्ययात् । आशुभावं समालम्ब्य बध्यते सोऽपि पूर्ववत् ॥
-उद्भट, काव्यालं० सार सं०, २, २४-२५